Sunday 17 February 2013

दक्षिणापथ 16 to 28 feb 2013

सरकारी दावें की खुली पोल छत्तीसगढ़ में निवेश से कतरा रहे उद्योगपति दक्षिणापथ विशेष छत्तीसगढ़ में निवेश के लिए उद्योगों को आकर्षित करने जिस इंवेस्टर्समीट की बात बड़े जोर-शोर से सरकार ने की थी, पांच महीना बीतते-बीतते वह महज शिगूफा बन गया है। सरकार द्वारा 5 सौ एमओयू के जरिये एक लाख करोड़ से ज्यादा रूपए के विनिवेश के दावे भी ठंडे पड़ते नजर आ रहे हैं। पानी, कोयला, जमीन व खनिज अयस्क के अभाव में उद्योगपति आखिर अपना ईकाई कहंा लगाए ? एमओयू करने वाले उद्योगपति औद्योगिक संसाधन के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा-लगाकर हलाकान हो गए, और अब वे अपने कदम पीछे खींचने लगे हैं। जिस लौह आधारित उद्योगों को छत्तीसगढ़ की रीढ़ मानी जाती है, बीते 10 सालों में उन्हें कच्चा अयस्क मुहैया कराने में भी सरकार मुकम्मल नहीं हो सकी। जबकि इन्हीं खदानों से कम दामों पर अयस्क पुराने एग्रीमेंट के आधार पर दीगर प्रंातों में भेजे जा रहे हैं। नतीजतन, लौह अयस्क के आधार पर चलने वाले प्रदेश के करीब 50 फीसदी उद्योग या तो बंद हो चुके हैं, अथवा अंतिम संासें गिन रहे हैं। यही हाल राज्य के पावर सेक्टर में भी है। सरकारी नीति निवेशकों की परिस्थिति व भौगोलिक स्थिति में विरोधाभाष है। सरकार जिन एमओयू के दम पर सरप्लस बिजली का दावा करती है, सच्चाई तो यह है कि उनमें से एक भी उद्योग की स्थापना पिछले पांच सालों में नहीं हुई है। अगर यही स्थिति रही तो आगामी दस सालों में भी इनके पूरे होने के आसार नहीं। अमूमन, इस सभी विभागों का सीधा संबंध मुख्यमंत्री डा रमन सिंह से है। डा रमन ने अपने चहेते अफसरों व करीबी लोगों को विभाग प्रमुख बनाकर बिठा दिया है, जिनके बारे में कहा जाता है कि सही मायनो में वे ही राज्य को चला रहे हैं। इनमें से अधिकांश अफसरों के नाम ताजा हुए सर्वे में प्रदेश भर के सर्वोधिक भ्रष्ट 72 अधिकारियों में शुमार है। सरकार केवल राजधानी की चकाचौंध दिखाकर निवेशकों को आकर्षित करना चाहती है। उन्हें मैदानी इलाकों की वास्तविकता जानने नहीं दिया जाता। नए औद्योगिक नीति आईटी व रियल स्टेट के मसौदे को निवेशको तक ले जाने के लिए प्रदेश के किसान व आमजनों के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई से जमा किए गए राजस्व से करोड़ों रूपए राज्य उत्सव में खर्च कर दिए गए। परंतु चार महीना गुजर जाने के बावजूद पांच करोड़ रूपयों के भी निवेश नहीं करा पाए। एक अन्य राज्य की अपने ही पार्टी की सरकार की नकल की होड़ में राज्य के संसाधन पानी की तरह बहाए जा रहे हैँ। वर्तमान सूरते हाल में निवेशक एक ओर तो सरकारी उपेक्षा का संत्रास भुगत रहे हैं तो दूसरी ओर भू-स्वामियों और छूटभैये नेताओं से मुहाल हो चले हैं। इसके कई उदाहरण व शिकायत सरकार के जेहन में है, किंतु सरकार जानबुझकर उसे लटकाए रखना चाहती है। ताकि निवेशकों के आकंड़ों में इजाफा भी होता रहे और मैदानी कार्यो में कोई प्रगति भी न हो सके। महानदी, शिवनाथ और हसदेव बांगों नदी पर बनने वाले विभिन्न बैराज इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। बैराज के एवज में अफसरों ने निवेशकों सेे चंदा उगाही कर लिया, पर दस सालों में भी किसी बैराज का काम 30 फीसदी से आगे नहीं बढ़ सका। अधिकतर निवेशक पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत बनने वाले इन बैराजों के लिए आरंभिक किश्त का भुगतान भी कर चुके हैं। किंतु स्थल निरीक्षण व कार्य प्रगति जानने-देखने को इच्छुक निवेशकों को अधिकारी हर बार गोलमोल जवाब देकर चलता कर देते हैं। बताते हैं कुछ निवेशकों ने बेरोकटोक पर्याप्त पानी उपलब्ध होने के लालच में सभी किश्तों का भुगतान भी कर दिया है। भुगतान की राशि उनके द्वारा प्रस्तावित नियोजन का 25 से 40 प्रतिशत है। करोड़ों रूपए की किश्त जमा करने के बावजूद टालमटोल वाले सरकारी रवैय्ये से निवेशक खुद को ठगे हुए महसूस कर रहे हैं। निवेशकों का राज्य में इंफ््रास्ट्रक्चर की तमाम सुविधाए मुहैया कराने संबंधी सरकारी दावों की देश भर में किरकिरी हो रही है। ऐसे में बिना संसाधन के भला कोई निवेशक छत्तीसगढ़ में क्यों उद्योग लगाना चाहेगा? कुछ औद्योगिक इकाई जो छत्तीसगढ़ में निवेश के लिए गंभीर है, परंतु सरकार अपने राजनीतिक चंदा एवं स्वार्थ साधने के फेर में इन्हें ऐनकेन प्रकारेन पानी, कोयले, भूमि अथवा कच्चे अयस्क के लिंकेज-खदान आबंटन में उन्हें जानबुझकर किसी न किसी केस में उलझा दिया जाता है, या किसी सामाजिक संगठन की आड़ में मामले को विवादित बना दिया जाता है। जिसके बाद निवेशित पूंजी की वापसी के लिए अधिकारी उन उद्योगपतियों से सौदा करने में गुरेज नहीं करते आयोग के फरमान से सहकारिता नेताओं में हड़कंप सामान्य वर्ग के प्रतिनिधियों का निर्वाचन होगा रद्द दक्षिणापथ डेस्क सहकारी समितियों में आरक्षित क्षेत्रों से चुने गए सामान्य वर्ग के सभी सदस्यों का निर्वाचन पूरे राज्य भर में रद्द होगा। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, नई दिल्ली सेे सहकारिता विभाग के प्रदेश सचिव को यह फरमान मिलने के बाद चुने गए सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि सदस्यों में हड़कंप मच गया है। चूंकि, आगामी मार्च-अपे्रल महीने मेें सहकारी समिति के संचालक मंडल एवं अध्यक्षों का चुनाव होना है, लिहाजा आयोग के उक्त कदम से सहकारी समितियों में कब्जे की होड़ में बैठे पदाधिकारियों के सारे समीकरण गड़बड़ा गए हैं। राष्ट्रीय अजजा आयोग ने स्वयं संज्ञान लेते हुए राजनंादगांव जिले के प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियों के निर्वाचित सदस्यों के अवलोकन में पाया कि 89 प्राथमिक समितियों एवं 11 संचालक मंडल/प्रबंध समितियों के निर्वाचन में भारी चूक एवं त्रुटि हुई है। जिसके चलते निम्र आरक्षित वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। यही नहीं, बल्कि निर्वाचन में उक्त त्रुटि करने वाले संबंधित अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही करने की अनुशंसा भी आयोग ने की है। पिछड़े, अनुसूचित जाति और आदिवासी बहुल क्षेत्रों के प्राथमिक सोसायटियों से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधियों के चुनकर पहुंचने के मसले को आयोग ने पूरी गंभीरता से लिया है। आयोग ने सहकारिता विभाग के प्रदेश सचिव को यह भी निर्देश दिया है कि यदि त्रुटिपूर्ण चुनाव को रद्द करने के लिए सक्षम न्यायालय में कोई वाद प्रस्तुत करना पड़ा, तो वह भी करे। किंतु निम्न आरक्षित वर्ग को प्रतिनिधित्व से वंचित करने के मामले पर समझौता नहंी किया जाए। ध्यातव्य है कि सहकारी समिति के चुनाव में आरक्षण नियमों के पालन में ढिलाई बरतने की शिकायत गाहे-बगाहे मिल रही थी। देखा जा रहा था कि अजा/जजा एवं पिछड़ा वर्ग बाहुल्य इलाके से भी सहकारी समिति में सामान्य वर्ग के सदस्य निर्वाचित हो आए थे। इससे अजा/जजा एवं पिछड़ा वर्ग को सहकारी समिति में आपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा था। समुचे बस्तर को ट्रेवल बेल्ट माना जाता है, लिहाजा समिति में निर्वाचित होने वाले सारे सदस्य भी इसी तबके से होना लाजि़मी है। शहरी इलाके को छोड़कर रायपुर, दुर्ग, नांदगांव, महासमुंद व धमतरी को पिछड़ा बाहुल्य, बिलासपुर को एससी एवं सरगुजा को एसटी बेल्ट माना जाता है। आयोग के निर्देश अनुसार जिस क्षेत्र में जिस वर्ग की बहुलता है, वहंा उसी वर्ग से सहकारी समितियों में प्रतिनिधि चुनना आवश्यक है। सहकारिता अब राजनीति की सीढ़ी नहीं सहकारी समितियों के संचालक मंडल व अध्यक्षों का चुनाव अप्रैल तक किया जाना है। प्राथमिक सोसायटी से चुनकर आने वाले यही प्रतिनिधि संचालक मंडल का चुनाव करेंगे। फिर संचालक मंडल अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं विभिन्न प्रतिनिधियों का निर्वाचन करेंगे। तदुपरांत सहकारी समिति के राज्य बाडी का गठन होगा। किंतु अबराष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग द्वारा पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधियों के निर्वाचन को संज्ञान में लेने से सहकारी समिति का चुनावी समीकरण पूरी तरह बदल जाएगा। राजनीति में सक्रिय रहने वाले ग्रामीण क्षेत्रों के सामान्य वर्ग के रसूखदार लोग सहकारी समितियों के जरिये निर्वाचित होकर जिले एवं प्रदेश स्तर की राजनीति की शुरूआत कर विभिन्न राजनैतिक दलों में अपनी पहचान बनाकर बड़ी राजनीतिक पारी खेल चुके हैं। जबकि, सहकारी समिति का उद्धेश्य सहकार के जरिये किसानों की उन्नति करनी है, न कि राजनीति करनी। आयोग के इस निर्देश से अब इन वर्गों को सहकारी समितियों में समुचित प्रतिनिधित्व मिलेगा और उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर भी मिलेगा। केंद्र में राजनाथ, छत्तीसगढ़ में सरोज दक्षिणापथ डेस्क भाजपा अध्यक्ष के रूप में राजनाथ की ताजपोशी का छत्तीसगढ़ की सियासत पर दूरगामी असर पड़ेगा। तीसरी मर्तबा भाजपा को सत्ता में लौटने का अवसर मिलने पर बहुत संभव है कि महिला मुख्यमंत्री के रूप में सरोज पांडेय का नाम आगे आए। राष्ट्रीय राजनीति में गहरी पैठ जमा चुकी सांसद सरोज पांडेय यदि आम चुनाव में बेमेतरा विधानसभा से भाजपा प्रत्याशी घोषित हो, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में आज मुख्यमंत्री के बाद सरोज पांडेय भाजपा की सर्वाधिक कद्दावर नेता है। राज्य के दस भाजपाई सांसदों से इतर सरोज पांडेय ने दिल्ली में छत्तीसगढ़ की जिस तरह से आवाज बुलंद की, उसने सारे राजनीतिक पंडितों का ध्यान खींचा है। सरोज पांडेय आज स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री डा रमन सिंह का विकल्प बन चुकी है। खासतौर पर राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद प्रदेश की भाजपा राजनीति में उत्तर भारत केंद्रित सवर्ण नेताओं का दबदबा बढ़ा है। भाजपा रणनीतिकारों के एक तबके का मानना है कि आगामी लोकसभा चुनाव में यदि भाजपा गठबंधन की वापसी हुई तो रमन सिंह को केंद्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए दिल्ली बुलाना तय माना जा रहा है। उन हालातों में प्रदेश की कमान सौपने के लिए नए चेहरें की तलाश होगी। दुर्ग ससंदीय क्षेत्र के बेमेतरा विधानसभा क्षेत्र में सरोज पांडेय की बढ़ी हुई गतिविधि को उसी कड़ी से जोड़कर देखा जा रहा है। सूत्र बताते हैं कि सरोज पांडेय के लिए बेमेतरा शहर में एक अदद बंगले की तलाश में अधिकारी इसीलिए लगे हुए हैं ताकि भविष्य की सोच को वर्तमान का पुख्ता जमीन अभी से दे दिया जाए। बेमेतरा विस का चयन काफी सोची-समझी योजना की तहत किया गया है। सरोज के प्रत्याशी होने की दशा में सवर्ण वर्ग के मतदाताओं और आसपास के प्रभावशाली राजनीतिक शख्सियतों का समर्थन हासिल होगा। ऐसे में कांग्रेस प्रत्याशी को पटखनी देना सरोज के लिए कठिन नहीं होगा। मजबूत शक्ति स्तंभ सरोज पांडेय पिछली बार जब राजनाथ सिंह भाजपा अध्यक्ष बने, तभी पूर्व सांसद स्व. ताराचंद साहू की भाजपा में उल्टी गिनती शुरू हुई। 18 सालों तक लगातार सांसद रहने वाले स्व. साहू को आखिर भाजपा से बाहर का रास्ता देखना पड़ा था। किंतु मौजुदा हालात् दूजे किस्म का है। सरोज पांडेय पार्टी की स्वयं ही एक ऐसी शक्ति बन चुकी है जो दीगर गुटों पर भारी पड़ती हैं। चाहे संगठन में नियुक्ति का मामला हो, या किसी आयोग की अगुवाई की बात हो, सभी जगहों पर सरोज पांडेय की चल रही है। हप्ता भर पहले प्रदेश प्रभारी नड्डा की मौजुदगी में भिलाई में हुए भाजपा के चिंतन बैठक में सरोज पांडेय पूरी तरह छायी रही। यहंा तक प्रेमप्रकाश पांडेय व उनके समर्थकों के उक्त कार्यक्रम से दूरी बनाए रखने का भी खास असर नहीं पड़ा। पार्टी के आला नेतृत्व को भी अपनी मजबुत शक्ति स्तंभ होने का भरोसा सरोज पांडेय शिद्दत से दिलाने में कामयाब हो चुकी है। लिहाजा राष्ट्रीय नेताओं से लेकर प्रादेशिक एवं मैदानी कार्यकर्ताओं का भरपूर समर्थन सरोज पांडेय प्राप्त करने की स्थिति में आ चुकी हैँ। राष्ट्रीय स्तर पर लेने वाले पार्टीगत निर्णयों में सरोज पांडेय का स्पष्ट प्रभाव लगातार दिखने लगा है। उद्योगों ने छीना अमन-चैन सरकार को ग्रामीणों से ज्यादा उद्योगपतियों की चिंता भिलाई। जिले का औद्योगिक क्षेत्र भारी बदहाली के दौर से गुजर रहा है। अधिकांश बड़ी ईकाईयां एक-एक कर बंद हो गई है, और जो चल भी रही है, वहंा चार-चार महीनों से श्रमिकों को वेतन के लाले पड़े हैं। अवैधानिक रूप से मजदूरों की छंटनी में सैकड़ा भर से ज्यादा मजदूर काम से निकाले जा चुके हैं। जिनमें से 90 फीसदी मजदूर स्थानीय हैं। अलबत्ता, अन्य प्रांतों से मजदूर लाकर इंडस्ट्री के भीतरी परिसर में बसा कर उनसे काम लिया जा रहा है। स्थानीय लोगों को इन उद्योगों में मजदूरी कार्य देने के लायक भी नहीं समझा जा रहा है। दूसरी ओर उद्योग स्थापना के उपरांत औद्योगिक क्षेत्र के जोरातराई, मनगट्टा, रसमड़ा, गनियारी, पिपरछेड़ी, खपरी, सिलौदा, अंजोरा आदि गांवों में प्रदूषण की मार के चलते खेती-किसानी, पशुपालन जैसे सारे पारंपरिक कार्य खत्म होने की कगार पर पहुंच गए हैं। वहीं क्षेत्र की एकमात्र औद्योगिक इकाई कार्पोरेट सामुदायिक दायित्व के तहत ऊंट के मुंह में जीरा जैसे कार्य करा कर औपचारिकता निभा रही है, शेष इकाईयां सामुदायिक जिम्मेदारी के तहत एक ढेला भी नहीं उठा रही। गांवों में कामकाज की कमी के चलते बेरोजगारी की समस्या गंभीर हो गई है। कृषि जमीन, माइनिंग, मत्स्य पालन आदि क्षेत्र पहले ही उद्योगों के भेंट चढ़ गए हैं, गांव के लोग आखिर क्या करे? स्थानीय लोगों को काम नहीं देने की अघोषित नीति बना रखी है। कुछ गांवों में स्थिति इतनी खराब हो चली है कि अंतिम संस्कार के लिए जाने वाले रास्तों को भी कंपनियों ने हथिया लिया है। शिकायत करने पर छग औद्योगिक विकास निगम के अधिकारी आश्वासन बस देते हैं। उद्योगों के चलते क्षेत्र का सामाजिक संरचना भी बिखर गयी है। बाहर से आए अपराधी तत्वों की घुसपैठ से अपराध का दर बढ़ गया है। ग्रामीणों के बजाए उद्योगपतियों की बातों को पुलिस ज्यादा तवज्जो देती है। बाहर से आए श्रमिकों में भी अपराधी तत्वों की प्रधानता है। बाजार या अन्य स्थानों पर आए दिन झड़प होते हैं। कुछ दशक पहले उद्योग स्थापना से क्षेत्र का विकास होने की मंशा से जिन ग्रामीणों ने खुशी-खुशी अपनी जमीनें उद्योगों के हवाले कर दिया था, विकास के वे सारे सपने अब टूट चुके हैं। उद्योगों के चलते किसान न खेती कर पा रहे हैं और न अपने पशुओं का पाल पा रहे हैँ। प्रदूषण से समुची पीढ़ी बीमारी हो रही है। फैक्टरियों में ग्रामीणों को काम पर नहीं रखा जा रहा। वहीं गांव का अमन चैन व सामाजिक सौहाद्र छिन चुका है। लब्बोलुआब यह कि ग्रामीण अपनी जमीन देकर पछता रहे हैं। न तो उन्हें रोजगार मिला और न अमन-चैन। चुनाव में हिसाब मांगेगे ग्रामीण मलपुरीखुर्द गोढ़ी इलाके में लगाए जा रहे जेके लक्ष्मी सीमेंट कंपनी ने क्षेत्र के करीब आठ सौ एकड़ जमीन अपनी सीमा में शामिल किया है। आसपास की शेष जमीनों पर भी उनकी गिद्धदृष्टि लगी हुई है। क्षेत्र के लोगों ने जमीन के एवज में कंपनी में अभी से स्थायी नौकरी देने की शर्त पर अड़े हुए हैं। किंतु कंपनी के अधिकारी इसके लिए तैयार नहीं है। जागरूक सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता से ग्रामीण समझ चुके हैं कि उत्पादन आरंभ होने के बाद सिवाय प्रदूषण व दोहन के उनके हाथ कुछ नहीं आएगा। उत्पादित माल की ढुलाई के लिए भारी वाहनों का रेलमपेल उनका सुख चैन छिन लेगा। सीमेंट फैक्टरी से निकलने वाले राख से खेती-किसानी चौपट होना तय है। तालाब एवं अन्य जल स्रोत भी इतने दूषित हो जाएंगे कि वहंा का पानी पीने से मवेशियों का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा। सिर्फ छत्तीसगढ़ के खनिज संसाधनों के दोहन की नियत से स्थापित किए जा रहे फैक्टरियों के संबंध में विभिन्न राजनीतिक दल व सामाजिक संगठनों के नेताओं ने जरूर आवाज बुलंद किया, और उन्हें ग्रामीणों का समर्थन भी मिला, किंतु सरकार समवेत आवाज को सुनने के बजाए फैक्टरी मालिकों के पक्ष में खड़ी नजर आती है। क्षेत्र के ग्रामीण भी सरकारी मंशा को भली-भांति समझ रहे हैं। उपेक्षा एवं अन्याय की स्थिति में वे सरकार को चुनाव में जवाब देने का मन बना चुके हैं।

No comments:

Post a Comment