Thursday 4 April 2013

1-15 अप्रैल 2013

नया जिला, नया खेल! भूमिहीन होते आदिवासी गुनाहगार कौन?  

दक्षिणापथ/बालोद जिस उम्मीद व भावनाओं के साथ बालोद को जिला बनाने का सपना क्षेत्र के लोगों ने देखा था, सवा साल बीतते-बीतते वह टूट गया। खनिज संसाधन से भरपूर एवं आदिवासी बाहुल्य वाले बालोद को आदिवासी जिला बनाने की मांग भी उठी थी। यद्यपि आदिवासी जिले का दर्जा तो नहीं मिला, मगर उसी समाज के अमृत खलको को बालोद जिले का पहला आदिवासी कलेक्टर बनाकर शासन ने क्षेत्रीय जनभावनाओं का मान रखा। किंतु इन्हीं सवा सालों में बालोद जिले की जो दुर्गती हुई, शायद वह कई सालों के इतिहास में नहीं हुआ था। आंखफोड़वा कांड व आमाडूला के सरकारी आश्रम में बच्चियों से यौन शोषण के बाद षडयंत्र रचकर आदिवासियों के जमीन बेच देने का मामला इसकी ताजा कड़ी है। प्रदेश भर में बालोद संभवत: अकेला ऐसा जिला होगा, जहंा सिर्फ 11 महीने में 14 आदिवासियों की जमीन बिक्री के प्रकरण स्वीकृत किए गए। अन्य जिलों में जबकि आदिवासियों की जमीन खरीदने का आवेदन सालों-साल गुजर जाते हंै, पर स्वीकृत नहीं होते। फिर बालोद में एकमुश्त स्वीकृति कैसे मिली? क्या जमीन खरीदने वाले सारे लोगों के रसूखदार व सत्ता से जुड़े होने की वजह से दबाव अथवा प्रलोभन में प्रशासन ने स्वीकृति दे दी। हालांकि खरीदी-बिक्री को नियमपूर्वक होना बताकर प्रशासन अपना पल्ला झाड़ रही है, मगर असली सवाल अभी भी वही है। क्या इसीलिए आदिवासी बाहुल्य बालोद को जिला बनाया गया था ताकि प्रशासन पर प्रभाव डालकर आदिवासियों से जमीन खरीद सकें। उधर विधानसभा में मामला उठाकर विपक्ष ने भी अपने कत्र्तब्यों की इतिश्री कर ली है। आदिवासियों को भूमिहीन करने के इस साजिश में जिस तीखे तेवर से लड़ाई की दरकार थी, विपक्ष ने उसे कहीं पूरा नहीं किया। ऐसा लगता है कि एक जैसे हितों को लेकर सारे धनिक व रसूखदार वर्ग एक ओर हो गए हैं, और बहला-फुसला कर या सहिष्णुता का प्रलोभन देकर आम आदिवासी की जमीन छीनने के फेर में जुटे हैं। श्रेष्ठि वर्ग में शामिल आदिवासी कलेक्टर भी इस कड़ी में उनका साथ निभा रहे हैं। सत्ताधारी दल से जुड़े नेता एवं रायपुर, धमतरी, गुंडरदेही के कारोबारी ज्यादा से ज्यादा आदिवासियों की जमीन खरीदने की कवायद में लगे हैं। सूत्रों के मुताबिक बालोद जिले में 2 अप्रैल 12 से जनवरी 2012 के बीच कलेक्टर के सम्मुख आदिवासियों की जमीन विक्रय के 29 आवेदन मिले हैं। इनमें से 14 प्रकरणों को कलेक्टर ने मंजूरी दी। इनमें से 8 आदिवासियों की जमीन उच्च वर्ग से जुड़े लोगों ने खरीदी है। खरीदारों में गुंडरदेही के भाजपा नेता प्रमोद जैन की पत्नी अलका जैन व पुत्र अंकित जैन भी शामिल हैं। उनकी पत्नी व पुत्र के नाम पर कुल 1.90 करोड रूपए में गुडरदेही के वार्ड चैनगंज के पटवारी हल्का 23 में .50 हेक्टेयर जमीन खरीदी गई। यह जमीन धीरपाल पिता गेंद सिंह से खरीदी गई। गुरूर व गुंडरदेही, चिचबोड़, रेंगाकठेरा, बरबसपुर, दुधली, चंदन बिहरी, सतमरा, पेरपार, कांदुल, धोना, अछोली, डौंडीलोहारा, मर्री, बघेली आदि गांवों की जमीन विक्रय का आवेदन कलेक्टर के समक्ष लगाया गया है। विक्रय के सभी प्रकरणों में रायपुर, धमतरी, गुंडरदेही के ही कारोबारियों ने जमीन क्रय की है। जमीन विक्रय में जिस ढंग से ताबड़तोड़ स्वीकृति दी गई, वह संदेहास्पाद है। हालांकि इस मामले में अभी बड़े पैमाने पर घोटाले का खुलासा नहीं हुआ लेकिन नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे द्वारा विधानसभा में उठाए जाने यह मामला सुर्खियों में आ गया है। विधानसभा में सरकार द्वारा रखे गए जवाब पत्रक के अवलेाकन से स्पष्ट है कि जमीन के विक्रेता एक ही परिवार के हैं। कलेक्टर द्वारा विक्रय के लिए स्वीकृति किए गए प्रकरणों के अनुसार विक्रय के लिए भले ही आदिवासियों ने अपने हस्ताक्षर से आवेदन दिए हैं, लेकिन उनके आवेदन स्वीकृत कराने के लिए भाजपा के बड़े नेताओं ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। अन्यथा गरीब आदिवासी के आवेदन प्रकरण पर इतनी जल्दी सुनवाई कम से कम इस राज्य में तो नहीं हो सकता। गुरूर व गुंडरदेही के आदिवासियों की विक्रित जमीन का आकार .02 हेक्टेरयर से लेकर 2.01 हेक्टेयर तक है, जिसकी कीमत तीन से 50 लाख रू तक है। बहरहाल इस मामले की जांच गहरायी से की जाती है तो किसी बड़े जमीन घोटाले का खुलासा हो सकता है। इन्होंने खरीदी जमीन आदिवासियों की जमीन खरीदने वालों में अंकित जैन पिता प्रमोद जैन, अल्का जैन पत्नी प्रमोद जैन गुंडरदेही, सुनीता अग्रवाल पति गुलाब सिंह अग्रवाल रायपुर, पवन गोयल पिता प्रभाती गोयल धमतरी, वृषभ जैन पिता मोहनलाल जैन धमतरी, कामन जैन पति दीपक जैन धमतरी, सपन कुमार पिता उत्तम जैन गुंडरदेही, जयंती जैन पति उत्तम जैन गुंडरदेही, मनोज कुमार पिता माधोलाल खंडेलवाल गुंडरदेही, अजय किरी पिता मोहन लाल धमतरी, सुनील कुमार पिता श्याम लाल चिचबोड़ एवं अब्दुल सलाम पिता अब्दुल सत्तार रायपुर शामिल हैं। इनके अलावा गुंडरदेही के हरीश कुमार सोनकर व कमल किशोर सोनी भी खरीदारों में शामिल हैं। 11 महीनें, 29 प्रकरण आदिवासियों की जमीन विक्रय के मामले की शुरूआत दुर्ग से अलग होकर बालोद जिला बनने के एक-दो महीने बाद ही हो गई। इस मामले में पहला आवेदन चैनगंज गुंडरदेही निवासी मौती सिंह पिता कपिल सिंह ठाकुर का था। जिसने बालोद जिला बनने के कुछ समय बाद फरवरी- मार्च 12 में आवेदन जमा किया। जिसे कलेक्टर ने 4 अप्रैल 12 को स्वीकृति दी। अब तक 11 महीने में 29 आवेदन मिले हैं, जिनमें से 14 स्वीकृत हो गए हैँ। सरकारी कानून जमीन बचाने नाकाफी... हाल के बरसों में तेजी से भूमिहीन होते गए आदिवासी वर्ग को जमीन से वंचित होना न पड़ जाए, इसलिए सरकार ने आदिवासियों की जमीन खरीदी-बिक्री की प्रक्रिया सख्त बना रखी है। निरक्षर, पिछड़े व विकास की धारा से दूर रह रहे आदिवासी वर्ग दूसरों के बहकावें में या अन्य प्रलोभन में आकर औने-पौने दाम में अपनी जमीन बेच देते हैें। बाद में वह भले ही भूमिहीनों की श्रेणी में आ जाते और अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने बाध्य हो जाते है। तमाम सरकारी सख्तियों के बावजूद आज भी आदिवासियों की जमीनें खरीदी जा रही है और यह वर्ग अपनी ही जमीन पर भूमिहीन होता जा रहा है। संभवत- आदिवासियों की जमीन बिक्री का सरकारी कानून उनकी जमीनें बचाने के लिए काफी नहीं है। इसीलिए आदिवासियों की हित व उनकी जमीन को बचाने की मंशा से ही पेशा कानून का क्रियान्वयन करने की मांग लम्बे समय से की जा रही है। टुकड़ों में विक्रय की आशंका कलेक्टर के सम्मुख रखे गए अधिकांश मामलों में ऐसा लगता है कि जमीनों का विक्रय टुकड़ों में किया गया। इसके लिए संभवत: नामांतरण की प्रक्रिया अपनाई गई। गुरूर ब्लाक के ग्राम चिटौद में 0.21 व 0.28 हेक्टेयर जमीन क्रमश: मंकुंदी बाई पति मिलऊ गोड़ व धनमत पिता मिलऊराम एक ही परिवार की हैं। जिसे संभवत: नामांतरण के माध्यम से विक्रय किया गया। इसी तरह के कुछ और प्रकरण भी सामने आए हैं। इसके पीछे मकसद राजस्व नियमों से बचना हो सकता है। 

 विधायकों का वेतन और आम आदमी की तकलीफ दक्षिणापथ /भिलाई छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा विधायकों के वेतन आठवीं बार बढ़ाए जाने पर राज्य के आमलोगों में तल्ख प्रतिक्रिया है। आम लोगों का मानना है कि राज्य में शिक्षाकर्मी, मितानिन, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, मध्यान्ह भोजन कर्मी, स्वास्थ्य कार्यकर्ता श्रमिक, कर्मचारी और किसान, उचित पारिश्रमिक एवं वेतन के लिये संघर्ष कर रहे हैं, उनकी जायज मांगों को पूरा करने के बजाय सरकार ने दमन का रूख अपनाया। इससे स्पष्ट होता है कि विधायक आम जनता के जीवन स्तर में सुधार करने का प्रयास न करके अपने सुख सुविधा की चिन्ता कर रहे हैं। वेतन बढ़ाने संबंधी सरकारी फैसले पर विपक्षी कांग्रेस के विधायकों ने भी कोई विरोध नहीं जताया, बल्कि टेबल बजाकर तुरंत हर्षित ध्वनि से इसकी सहमति दे दी। अपना वेतन एवं अन्य भत्ते बढ़ाने का फैसला लेने में विधायकों ने चंद मिनट का वक्त भी नहीं लिया। पांच साल विधायक रहने के उपरांत हजारों रूपए पेंशन का पात्र बना देने का नियम सविंदा में काम कर रहे राज्य के उन हजारों कर्मचारियों के मुंह पर तमाचा है, जो ताउम्र संविदा नौकरी करते रहेंगे और नौकरी के बाद पेंशन भी नसीब नहीं होगा। इस मुद्दे पर दक्षिणापथ ने जब समाज के विविध वर्गों से चर्चा कर उनकी प्रतिक्रिया पूछी, तो किसी ने भी सरकारी निर्णय का समर्थन नहीं किया। बल्कि अपनी ओर से कई ज्वलंब सवाल भी उठा दिये। 16 सालों से शिक्षाकर्मी की नौकरी कर रहे पाटन निवासी सुनील नायक का कहना है कि सरकार को सिर्फ अपनी चिंता है। सरकार के एक विधायक परेश बागबहरा ने विधायकों के वेतन वृद्धि को नाकाफी निरूपित करते हुए यह भी कहा कि उनके 50 हजार रू हर महीने लोगों को चाय पिलाने में ही खर्च हो जाते हैं। श्री नायक ने सवाल उठाया कि विधायक बन जाने के बाद उनकी चाय इतनी महंगी क्यों हो जाती है? आरक्षण कटौती के मसले पर अछोटी की महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता सुरेखा साहू कहती है कि सरकारी नौकरियों की धूमिल संभावनाओं के बीच सरकार आरक्षण का कार्ड खेल कर अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ा वर्ग को बेवजह उलझा रही है। निजीकरण और ठेकेदारी के इस युग में वैसे भी आरक्षण का वास्तविक लाभ किसी भी वर्ग को नहीं मिलेगा। जल, जंगल, जमीन और खनिज के बेतहाशा दोहन से आमजनता का ध्यान भटकाने के लिये आरक्षण का मुद्दा उछाला गया है। टीए का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब बीएसपी ने नौकरी नहीं दी, तब जीवन गुजारने के लिए मुरमुंदा (धमधा) में पान का दुकान लगा लेने वाले मोहन चंदेल इस बार भी खूद को छला हुुआ महसूस कर रहा है। उनका कहना है कि भिलाई इस्पात संयंत्र में श्रमिकों के सभी पदो पर स्थानीय रोजगार कार्यालयों के माध्यम से नियुक्ति देना चाहिए। इस बार भर्ती नियम को बदल कर बीएसपी ने स्थानीय लोगों से छल किया है। जगदलपुर में इलेक्ट्रिक दुकान चलाने वाले महेंद्र ठाकुर ने नगरनार बस्तर में एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट की 49 प्रतिशत हिस्सेदारी निजी क्षेत्र को बेचे जाने का विरोध करते हुए कहा कि निजीकरण से स्थानीयों की उपेक्षा तय है। सरगुजा निवासी दिनेश कुशवाहा ने कहा कि उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिला, झारखण्ड के बाराडीह में कनहर नदी में और बिहार के पलामू रोहतास जिलों के बीच सोन नदी में इन्द्रपुरी जलाशयों के निर्माण के कारण सरगुजा संभाग के सैकड़ों गावों के डूबान से प्रभावित होने हजारों आदिवासियों के विस्थापन होगा। यही नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के आरक्षित वनों और कोलियारी में गंभीर नुकसान होगा। रायगढ़ के आरटीआई एक्टिविस्ट प्रदीप खंडेवाल कहते हैं कि दीर्घकालीन हितों के बजाए राज्य सरकार वोट के तत्कालिन लाभ-हानि पर ज्यादा गौर कर रही है। उनका कहना है कि राज्य सरकार को पड़ोसी राज्यों पर बांधों की उंचाई कम करने के लिये दबाव बनाना चाहिए। नहीं तो छग को भविष्य में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। बहुत सारी खेती की जमीन डूबान में चली जाएगी, और उस पानी पर भी राज्य का अधिकार नहीं होगा। सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का विरोध करते हुए गंडई(कवर्धा) निवासी रितेश अग्रवाल कहते हैं कि निजीकरण के बूते आम जनता का जीवन स्तर उपर नहीं उठा सकता। गंडई में मेडिकल स्टोर्स चलाने वाले रितेश अग्रवाल स्वयं एमकाम तक शिक्षित हैं। जीईसी, रायपुर में आठवें सेमेस्टर की छात्रा प्रणीति जैन ने स्थाई प्रकृति के सभी कार्यो में श्रमिकों-कर्मचारियों को स्थाई नियुक्ति पर बल देते हुए कहा कि इससे रोजगार बढ़ेगा। गिरौदपुरी ग्राम पंचायत में पंच विजय देशलहरे अनुसूचित जाति के आरक्षण कटौती को व्यर्थ निरूपित करते हुए कहते हैं कि वर्तमान समय में आरक्षण का लाभ कुछ लोगों को ही मिल पाता है। देखा गया है, अब तक जिन लोगों ने इसका लाभ लिया भी है, उन लोगों ने समाज के बजाए अपनी निजी स्वार्थों को तवज्जों दिया। कई लोगों ने आरक्षण के चलते नौकरी पाने के बाद समाज से नाता तोड़ लिया और अपने लिए पत्नी दीगर समाज से लाया। श्री देशलहरे का कहते हैं- लगभग 32 सालों से राजनीति से जुड़ा हूं। अपनी जाति के लिए हम लोगों ने संघर्ष किया, मगर जिन्हें फायदा मिला.. उन लोगों ने ही हमारे समाज को त्याग दिया। ऐसे में संघर्ष का क्या मतलब रहा। अपने एक निकटवर्ती रिश्तेदार का उदाहरण देते हुए श्री देशलहरे ने बताया कि दुर्ग से 32 किलोमीटर की दूरी पर जामगांव रोड पर स्थित छोटे से गांव गाड़ाडीह में ससुराल गई उनकी एक बहन ने बड़ी मुश्किल से अपने छोटे बेटे को पालीटेक्निक की शिक्षा दिलायी। छग विद्युत मंडल में जूनियर इंजीनियर के पद पर उसकी नौकरी भी लगी। मगर आज उस बेटे ने एक स्वर्ण युवती से शादी कर ली, और अपने परिवार को भूल गया। यहंा तक अपनी एकमात्र बहन की शादी में भी वहंा शामिल होने नहीं आया। आरक्षण का लाभ उठा कर बड़ा आदमी बन जाने वाले समाज के लोग ही समाज को भूल जाते हैं। फिर ऐसे आरक्षण का क्या लाभ... ? राज्य में तीसरे विकल्प की दरकार व्यक्त करते हुए ग्राम पंचायत मर्रा के सरपंच होरीलाल वर्मा कहते हैें अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये 27 प्रतिशत आरक्षण और राज्य में संविधान की 5वीं अनुसूची, पेसा कानून और वनाधिकार अधिनियम के प्रावधानों का पालन जरूरी है। ---------------------------

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