Monday 17 September 2012

दक्षिणापथ 16 से 30 सितंबर 2012

छालीवुड की लता मंगेशकर - अलका चंद्राकर
० ठेठ नाचाशैली से लेकर छत्तीसगढ़ी फिल्मी गीत गायन का अनूठा सफर
अलका चंद्राकर अब छत्तीसगढ़ के संगीत रसिकों के लिए अनजाना और अनचिन्हा नाम नहीं रह गया है।  जब-जब छत्तीसगढ़ी सुगम संगीत,फिल्म संगीत और ठेठ पारम्परिक छत्तीसगढ़ी गीतों की चर्चा होगी, तब-तब अलका चंद्राकर का नाम सबसे पहले लिया जाएगा। यू कहें कि अलका छत्तीसगढ़ की नम्बर-वन गायिका है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी पूत के पॉव पालने में ही दिखाई देता है वाली कहावत अलका के संदर्भ में वास्तविकता की परिधि में बिल्कुल चरितार्थ होती है। लोकगायक एवं संस्कृतिक प्रेमी पिता माधव चंद्राकर की छत्रछाया में पली-बढ़ी अलका बचपन से ही छत्तीसगढ़ी गीतों को सुनती और तुतली आवाज में गुनगुनाती कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला। 9 जून 1982 को बिलासपुर में जन्मी अलका बताती है , कि पारिवारिक सहयोग के बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिलती। फुलवारी लोककला मंच ओर माता जागरण मंच में गाते-गाते न केवल रियाज आगे बढ़ा बल्कि एम .ए. (समाज शास्त्र, संगीत विशारद) तक की शिक्षा भी आगे बढ़ी आकाशवाणी कि  बी हाईग्रेड कलाकार अलका की आवाज जितनी मधुर है ,उतनी ही सहज और स्वभाव की मीठी है । उन्होंने लगभग 35 फिल्मों में उन्होंने पाश्र्व गायन किया है।  पाश्र्व गायन में लता मंगेशकर,सोनू निगम ,उदित नारायण ,अभिजीत भटचार्य,विनोद राठौड़,अनुराधा पौडवाल जैसे बॉलीबुड के गायक कलाकार शामिल रहे है। उन्होंने छत्तीसगढ़ी भोजपुरी,ओडिय़ा,हिन्दी आदि भाषाओं में गायन किया है। मंचीय स्तर पर उन्होंने छत्तीसगढ़ के अलावा गोवा मध्यप्रदेश,रामेश्वरम, ओडिशा,महाराष्ट्र में गायन प्रस्तुत किया। राजिम महोत्सव,चक्रघर समारोह कालिदास समारोह में के नियमित रूप से भाग लेती है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के हाथों उन्हें सन् 2005 में छत्तीसगढ़ की नम्बर-वन गायिका का सम्मान मिला है। सैकड़ों मंचों पर निस्संकोच,बेसुध और नियंत्रित होकर गायन को ही ईश्वर का प्रतिरूप मानने वाली गायिका अलका चंद्राकर को विवाहोपरान्त अमित परगानिहा जैसा जीवन साथी मिला, जो उनके कदम -दर -कदम यथोचित सहयोग करते है। अलका ने पारम्परिक गीतों में सुआ गौरी-गौरा ,विवाह गीत,कर्मा,ददरिया,नवधा रामायण,देवी जसगीत, मॉ के लाली चुनरिया,जगमग दीयना,बाजै पैजनिया,मॉ के झूलना ,वैभव लक्ष्मी,सतीकथा,कृष्णा-भक्ति के अलावा चमके रे बिंदिया,घड़के रे जिया,मीत-मतौना जैसे श्रंृगारिक गीतों को गाया है जिसके हजारों कैसेट छत्तीसगढ़ के घरों में बजते सुनाई देते है उन्हें छालीवुड में भी नम्बर -वन गायिका होने का मलाल भी नहीं है उनकी हार्दिक इच्छा गायन——गायन और सिर्फ गायन है।  इसी के चलते छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने लघु फिल्म में जनगणमन——गायन हेतु कान्स फिल्मफेयर 2012 के लिए नामांकित भी किया है।
प्रमुख छत्तीसगढ़ी फिल्में जिसमें अलका ने पाश्र्व गायन किया है। ,हीरो नम्बर वन ,टूरा रिक्शावाला,लैला टीपटाप छैला अंगूठा छाप उपरोक्त फिल्मों में पाश्र्व गायन के लिए उन्हें वर्ष 2010,2011 और 2012 के लिए सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायिका का अवार्ड दिया गया है।
अलका ने हर शैली और हर विधा में छत्तीसगढ़ी गीतों को अपना स्वर दिया है। काबर मारे रे नजरिया के बाण ,मोर पिरीत जिव के काल होगे रे (नाचा-नजरिया शैली) से लेकर ए पिरीत वाली रानी,पिया दे मया पानी, जैसी ठेठ फिल्मी गीत तक पाश्र्व गायन कर पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के मध्य संगीत के क्षेत्र में सामंजस्य बनाए रखा है। उनकी रियाज ,रूचि और व्यस्तता का आभास किया जा सकता है। उन्हें महसूस कर कहा जा सकता है, कि अलका,छत्तीसगढ़ी पाश्र्व गायन की वह स्पर्श बिन्दु बनेगी, जिन्हें केवल तपस्या से ही अर्जित की जा सकती ।
                                                                                                                                       सहदेव देशमुख

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          खुद की राह में रोड़ा बने कोर्सेवाड़ा          

- जनप्रतिनिधि का राजधर्म नहीं निभा सके

अरविंद चिचखेड़े
अहिवारा। व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों पर अहिवारा विधायक डोमनलाल कोर्सेवाड़ा के जनविरोधी रवैय्ये से उनकी आगामी राजनैतिक डगर पर  तलवार लटकते दिख रही है। अहिवारा क्षेत्र के ग्राम गिरहोला में क्षेत्र की जनता के विरोध के बावजूद जेके लक्ष्मी सीमेंट कंपनी ने आखिर फैक्टरी लगा ही डाली। इस पूरे प्रकरण में विधायक कोर्सेवाड़ा की रहस्यमयी चुप्पी से क्षेत्र के लोग क्षुब्ध है। रही-सही कसर नई कृषि उपज मंडी के 56 नग सेण्डी (दुकानों) के आबंटन में करप्शन ने पूरा कर दिया है। दुकान आबंटन में गड़बड़झाला के दौरान विधायक डोमनलाल कोर्सेवाड़ा की धर्मपत्नी कमला कोर्सेवाड़ा ही मंडी अध्यक्ष थीं। इस प्रकरण के चलते दुर्ग जिला कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ मुखर होने का अवसर मुहैया करा दिया है। विरोधी पार्टी के साथ-साथ पार्टी के भीतर भी कोर्सेवाड़ा दंपत्ति निशाने पर आ गया है।  मौजूदा हालात् में कोर्सेवाड़ा दंपत्ति भाजपा के लिए गले की फांस में तब्दील होता दिखाई दे रहा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा, कि मिशन 2013  के मद्देनजर कोर्सेवाड़ा को पार्टी किनारे भी बिठा दे। दरअसल, भ्रष्ट्राचार रेत की टीले-सा है जो अगर ढहा तो उन सबको अपनी चपेट में ले लेगा, जो अपनी ही बात पर अड़े होंगे।
जेके लक्ष्मी सिमेंट कारखाने के मामले में जनहित की अनदेखी एवं कृषि उपज मंडी दुर्ग के दुकान आबंटन में भ्रष्ट्राचार, इन दोनों के अलावा विधायक कोर्सेवाड़ा की जातिगत प्रतिबद्धता भी गंभीर सवालों के घेरे में हैं। जिस अनुसूचित जाति के आरक्षण के चलते कोर्सेवाड़ा को विधायक बनने का अवसर मिला, विधायक बनने के बाद सत्ता की चकाचौंध में अपने समाज के हितों को दरकिनार कर दिया। इस वर्ग के आरक्षण कोटे में 16 से घटाकर12 प्रतिशत करने पर अपनी सरकार होने के बावजूद विधायक कोर्सेवाड़ा द्वारा सदन में इसके खिलाफ आपत्ति नहीं उठाये जाने से स्वयं उनके समाज के लोगों में आक्रोश है। भाजपा विधायक कोर्सेवाड़ा की अपनी जातिगत समाज के प्रति निरूद्देश्यपूर्ण रुख से यह समाज अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। व्यापक जनहितों से जुड़े आमजनों के मसलों पर अहिवारा विधायक ने नि:संदेह एक उथले जनप्रतिनिधि होने का अहसास कराया है। कोर्सेेेवाड़ा ने मिशन 2013 के लिए अपनी राह स्वयं ही कठिन बना ली है। क्योंकि,  विश्वास टूटने की सजा देने के लिए जो रेफरी मैदान में खड़ा है वह कोई और नहीं बल्कि खुद जनता है।
2008 के आमचुनाव में नए बने आरिक्षत अहिवारा विधानसभा सीट से डोमनलाल कोर्सेवाड़ा प्रथम विधायक चुने गए थे। अनेक विपरीत परिस्थितियों के बीच जिस तरह से श्री कोर्सेवाड़ा विधायक चुनाव जीतने में सफल हुए थे, उससे क्षेत्रीय लोगों में नवोदीप्त नेतृत्व में विकास की खासी उम्मीद जागी थी। विधायक बनने के पूर्व वे शिक्षा पेशे से जुड़े होने के साथ-साथ लंबे समय तक सांसद ताराचंद साहू के निज सचिव के रुप में कार्य करने का अनुभव था। जिसके चलते अहिवारा क्षेत्र ही नहीं, अपितु पूरे प्रदेश के सतनामी समाज ने डोमनलाल कोर्सेवाड़ा पर सामाजिक हितों के संवद्र्धन की नवीन संभावना देखी थी। पर 2013 आने तक कोर्सेवाड़ा ने समुचे जनभावनाओं की मिट्टीपलित कर दिया।
क्षेत्र के ग्राम मलपुरीखुर्द में गरीब आदिवासियों की जमीनें छीन कर जेके लक्ष्मी सिमेंट कंपनी की फैक्टरी लगायी जा रही है। गांव से गिरहोला व गोढ़ी जाने वाली सड़क पर कंपनी ने नाजायज कब्जा जमाते हुए लोगों के आवाजाही पर रोक लगा दिया है। गरीब ग्रामीणों से जबर्दस्ती उनकी खेती की जमीन छीन ली गई, क्षेत्र के बेरोजगार नवयुवकों की उपेक्षा पर विधायक ने उफ तक न किया। पीडि़तों ने जब क्षेत्रीय विधायक से न्याय के लिए गुहार लगायी, तब भी उन्हें मायुसी के सिवाय कुछ न मिला।
बर्बादी के लिए कमजोर सियासी नेतृत्व जवाबदार
अहिवारा क्षेत्र की यह विडंबना ही है कि भूगर्भ में दबे उच्चगुणवत्ता वाले चूना, डोलोमाइट व पत्थरों का सालों से अनवरत् दोहन के बावजूद इस क्षेत्र को विकास का वाजिब हक नहीं मिला। भिलाई इस्पात संयंत्र पांच दशकों से नंदनी माइंस में खनिज पदार्थों का दोहन करता रहा, अब जेके लक्ष्मी जैसे निजी कारर्पोरेट्स की गिद्धदृष्टि से भी यह क्षेत्र अछूता नहीं रह सका है। भविष्य में और भी न जाने किस स्तर तक इन जमीनों को खोखला बनाने क्रम बदस्तूर चलता रहेगा, और जनप्रतिनिधि कार्पोरेंट्स घरानों के हाथ के खिलौने बनते रहेंगे।
पर, इस क्षेत्र के आम बाशिंदोंं के हाथ क्या आया? उल्टे किसानों की खेती की जमीन छीन ली गई। यहंा तक चारागाह व सार्वजनिक सड़क तक छीन लिये गए। पर मजाल है, कि किसी राजनेता ने क्षेत्रीय ग्रामीणों की पीड़ा को महसूस किया हो, या इनके समर्थन में सामने आए हो। फैक्टरी लगने के पहले कंपनी ने क्षेत्र के बेरोजगारों को नौकरी देने का झांसा दिया था। फैक्टरी लगने के बाद वहंा नौकरी मिलनी तो दूर की बात रही, फैक्टरी के सुरक्षाकर्मी ग्रामीणों को फैक्टरी के आसपास फटकने भी नहीं दे रहे हैँ। इतना ही नहीं, बल्कि दो सार्वजनिक सड़कों से लोगों के गुजरने पर भी बलात् पाबंदी लगा दी है। शासन-प्रशासन से शिकायत करने पर ग्रामीणों के आवाज नक्कारखाने में तुती की तरह साबित होती है। इस क्षेत्र के दो दर्जन से अधिक गांवों के लोग अपने भविष्य की धुुधली तस्वीर के प्रति चिंतित हैँ। उन्हें आशंका है कि जब फैक्टरी निर्माणाधीन है, तब यह हाल है। फैक्टरी में उत्पादन शुरू होने के बाद न जाने कहां-कहंा के गुंडा तत्वों का इस अंचल में बोलबाला हो जाएगा, और ग्रामीण अपनी ही जमीन पर पराये बन जाएंगे। दरअसल इस इलाके दुर्गति के लिए कमजोर सियासी नेतृत्व जवाबदार है। क्षेत्रीयजन ईमानदार, कर्मठ एवं जमीनी नेता के अभाव को अपनी बर्बादी के लिए जवाबदार मानते हैँ। लिहाजा, नेताओं के प्रति आमजनों में बेहद गुस्सा भरा हुआ है।
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भाजपा की कमजोर कड़ी बना गुंडरदेही

दक्षिणापथ डेस्क

बालोद। अगले आमचुनाव के मद्देनजर गुंडरदेही विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस एवं भाजपा के भीतर अंतर-दलीय समीकरण निर्माण की प्रक्रिया गति पकडऩे लगी है। बालोद जिला बनने के पूर्व गुंडरदेही क्षेत्र का दुर्ग जिले की राजनीति में अहम स्थान था। इस क्षेत्र के 85 फीसदी से अधिक लोग बालोद जिले में जाने के बजाए दुर्ग जिले में ही रहना चाहते थे। किंतु वृहत जनभावनाओं को दरकिनार करते हुए न सिर्फ गुंडरदेही को बालोद जिले में जोड़ा गया, बल्कि क्षेत्रीय विधायक वीरेंद्र साहू ने इस मसले पर क्षेत्रीय जनभावनाओं के बजाए अपनी पार्टी व सत्ता का साथ दिया। विधायक साहू की कार्यप्रणाली से मतदाताओं की नाराजगी का खामियाजा सत्तारूढ़ दल को उठाना पड़ सकता है। भाजपा प्रदेश संगठन के उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक प्रदेश भाजपा के बड़े नेताओं को जमीनी हालात् की लगातार खबर मिल रही है। आगामी चुनाव में सीट बचाने की गरज से पार्टी के प्रादेशिक रणनीतिकार गुंडरदेही सीट से नए चेहरे की संभावना टटोल रहे हंै। बताते हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा गुपचुप कराए गए चुनावी सर्वेक्षण में गुंडरदेही सीट को काफी कमजोर कड़ी बताया गया है। पार्टी के केंद्रीय नेताओं ने प्रादेशिक नेताओं को गुंडरदेही सहित तमाम कमजोर दिख रही सीटों पर नए सिरे से समीकरण बिठाने का जिम्मा भी सौंप दिया है।
गुंडरदेही विधानसभा यद्यपि साहू बाहुल्य इलाका है, तथापि आदिवासी मतों की संख्या सर्वाधिक है। वहीं देवांगन एवं सिन्हा समाज के मतदाताओं की संख्या भी निर्णायक स्तर पर है। वर्तमान विधायक वीरेंद्र साहू की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर भाजपा से अन्य दावेदार भी सामने आ रहे हैँ। गैर साहू समाज के प्रत्याशियों को यदि अवसर दिया जाता है, तो जिला पंचायत की उपाध्यक्ष संध्या भारद्वाज एक सशक्त प्रत्याशी हो सकती हैं। विलोपित हुए खेरथा विधानसभा सीट के पूर्व विधायक डा बालमुकुंद देवांगन, नरेश यदू, अश्वनी यादव, चेमन देशमुख, गौकरण सिन्हा, प्रमोद जैन, सालिक राम देशमुख के अलावा युवा नेता ललित चंद्राकर के नामों पर विचार किया जा सकता है। वहीं साहू समाज से प्रत्याशी के तौर पर पूर्व विधायक डा दयाराम साहू व उनकी धर्मपत्नी रमशिला साहू पुन: दावेदारी की कतार में हैँ।
कांग्रेस से इस बार यदि अजीत जोगी की चली तो पुलिस विभाग से डीएसपी की नौकरी छोड़ कर कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने आतुर राजेंद्र राय को तवज्जो मिलेगी। चूंकि वे आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, साथ ही उनकी पारिवारिक पृष्टभूमि भी राजघराने से है। कंवर राजघराने से ताल्लुक रखने वाले राय के पिता ठाकुर अजय पाल सिंह (अंजू बाबू) इस क्षेत्र के लिए अनजाने चेहरे नहीं है। कांग्रेस से राजेंद्र राय को एक मजबूत दावेदार माना जा रहा है। उन्होंने  50 लाख रूपए के अलावा पांच एकड़ जमीन कांग्रेस को पार्टी कार्यालय बनाने के लिए अपनी ओर से दिया है। कांग्रेस प्रत्याशी तय करने में यदि वोरा की भूमिका प्रमुख रही, तो पूर्व विधायक घनाराम साहू को पुन: मौका मिल सकता है। दावेदारों की दौड़ में पूर्व जिपं सदस्य ब्रजेश चंद्राकर, डा नारायण साहू एवं वर्तमान जिपं सदस्य आलोक चंद्राकर आदि नाम प्रमुख है।
कांग्रेस व भाजपा के अलावा स्वाभिमान मंच का प्रत्याशी उतरना तय है। इसके अलावा डौडीलोहारा ब्लाक सरपंच संघ के अध्यक्ष एवं पूर्व जनपद उपाध्यक्ष स्वतंत्र तिवारी जैसे नेता भी निर्दलीय चुनाव लडऩे की तैयारी में हैँ।

बदलेगा समीकरण

परिसीमन 2008 के पहले गुंडरदेही विस दुर्ग जिले में अहम स्थान रखता था। कांग्रेसी राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले स्व. वासुदेव चंद्राकर के अलावा पूर्व सांसद ताराचंद साहू एवं स्व. हरिहर शर्मा जैसे नेताओं ने इस क्षेत्र की राजनीति को नया आयाम दिया। बालोद जिले में जाने के बाद  दुर्ग केंद्रित सियासी साये से मुक्ति की ओर बढ़ रहे गुंडरदेही विधानसभा में नए राजनीतिक समीकरण बनने की प्रबल संभावना है। दरअसल, आने वाले विधानसभा चुनाव की $िफज़ा में तैरते विचार को किसी लगाम से कसा नहीं जा सकता। जैसा कि 2008 में हुआ था, आज वे बेमानी हो चुकी है। आपसी मतभेद ने अब विश्वसनीयता को निशाना बना लिया है। वोटों की होड़ की फुहड़ स्थिति नेताओं के लिए अक्सर हानिप्रद साबित होता है।
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अपने ही तोड़ रहे हैं भरोसा

टी.ऋतेष
दक्षिणापथ डेस्क
 रात एक बजे का समय, भिलाई का सेंट्रल एवेन्यू रोड, दो बाइक पर दो लड़के व दो कालेज छात्रा सवार होकर गुजरते दिखते हैँ। चौराहे पर गश्त कर रही पुलिस की एक टीम उन्हें रोकती है। पूछने पर संतोषजनक जवाब नहीं मिलने पर पुलिस उन्हें थाने ले आती है। इसी दौरान उनमें से एक युवती की तबियत अचानक बिगड़ती है और अंत में उसकी सांसें उखड़ जाती है। इस घटना से पुलिस के हाथ-पॉव सून्न पड़ गए। सभी के अभिभावकों को सूचना दी गई। पर पुलिस यह जानकर हैरान हो गए कि चारों कालेजियन्स कहीं और से यहंा पढ़ाई करने आए हैं। स्थानीय गार्जियन के नाम पर भी उनके यहंा कोई नहीं है।
तीन दिन पहले आदर्श नगर, दुर्ग में रात सवा11 बजे करीब 20-22 वर्षीया एक युवती सूने सड़क पर तेजी से दौड़ते अपने किराए के मकान तक पहुंचती है। मकान से उसी उम्र वाली एक अन्य युवती बाहर निकल कर उसका हाथ थामती है और उसे सहारा देकर अंदर ले जाती है। ठीक इसी समय मकान के सामने वाले मार्ग से लाल रंग की एक विस्टा कार  मंदगति से गुजरती है। कार में सवार दो युवक उन्हें घर पहुंचते देख वापस लौट जाते हैँ। रात की तन्हाई में तेजी से घटे इस वाकये पर इत्तफाकन सामने रहने वाले एक सज्जन की नजर लगी हुई थी। सुबह आसपास के लोगों को उन्होंने इसकी जानकारी दी। बाद में पता चला कि दोनों में से पहली युवती अंबिकापुर एवं दूसरी जांजगीर, चांपा शहर की रहने वाली है। दोनों दुर्ग के एक निजी इंजीनयरिंग कालेज की छात्राएं है। आदर्श नगर में एक किराए के मकान में दोनों साथ-साथ रहती है। घटना के वक्त पीडि़त युवती नेहरू नगर, भिलाई स्थित होटल ग्रांड ढिल्लन में अपने एक मित्र की पार्टी में गई थी। उसी पार्टी में वे दोनों युवक भी आए थे जो उनका पीछा करतेे उसके मकान तक आ पहुंचे। देर रात तक होटल में पार्टी मना रही युवती के प्रति उनका नजरिया नितांत गलत किस्म का होता है। उक्त युवती ने अपने आप को किसी तरह उनसे महफूज नहीं कर पाती, तो पता नहीं उसे किस अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ता। अब एक अन्य घटना पर गौर किजिए। मालवीय नगर चौक, दुर्ग के समीप छात्राओं का एक निजी हास्टल है। जिनमें वे युवतियां रहती हैं, जो अध्ययन के लिए अन्य शहरों से यहंा आई हैं। करीब साल भर पहले छात्राओं के इस हास्टल में आधी रात को दो इंजीनयरिंग छात्रों ने चुपचाप घुसने की कोशिश की। गार्ड की नजर पड़ गई। उसने हल्ला मचाया। दोनों युवक उसे देख लेने की धमकी देते हुए वहंा से खिसक गए।
दरअसल, यह तीनों वाकया उन कालेजियन्स से वास्ता रखता है, जो उच्च पढ़ाई के नाम पर दूसरों शहरों से आए हुए हैँ। मां-बाप अपने बच्चों को जिस विश्वास के साथ पढ़ाई के लिए बाहर भेजते हैं, उनमें से कई बच्चे उस भरोसे को तार-तार भी कर देते हैँ। कोई गार्जियन अपनी जवान बेटी को आधी रात तक अपने मित्रों के साथ पार्टी करने या घूमने की इजाजत नहीं देते। अभिभावकों की निगरानी से मिली मुक्ति का नाजायज फायदा उठाते-उठाते अपना भविष्य भी दांव पर लगा देते हैँ।
देश भर में इजुकेशन हब के रूप में पहचान बना रहे दुर्ग-भिलाई में दर्जन भर से अधिक ऐसे मामलों के खुलासे हुए हैं, जिनमें निजी इंजीयनिरंग कालेजों में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं की संलिप्तता थी। चैन स्नेचिंग, चोरी, ठगी के अलावा कई छात्र तो ब्राउन शुगर के धंधे में ही उतर गए। राजधानी रायपुर के फाइव स्टार होटल कैनियान की घटना भी इसी ऐश्वर्यपूर्ण जीवन की चकाचौंध व ललक की बानगी है।
कैनियान होटल में शराब, ड्रग व अश्लीलता की पार्टी मनाते पकड़ी गई कुछ युवतियों के माता-पिता अपने बच्चों की करतूत देख फूट-फूटकर रो पड़े थे। पालक चाहे किसी भी तबके के हो, वे अपने बच्चों के लिए इस तरह की लाइफ का कभी कल्पना नहीं कर सकता।  यद्यपि पश्चिम देशों में वह सब चलता हो, पर भारतीय संस्कृति से बंधे माता-पिता पाश्चात्य कल्चर के नाम पर अपने बच्चों की इस उच्श्रृंखलता को स्वीकार नहीं करते।

लोकल गार्जियन  की हो जिम्म्ेदारी

पहली घटना में पुलिस व समाज यह जानकार चकित रह गई कि पढ़ाई के लिए बाहर से आने वाले छात्र-छात्राओं के लिए लोकल गार्जियन की जरूरत नहीं समझी जाती। इसी तरह किराए लेकर रहने वाली छात्राओं के प्रति मकान मालिक अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते। इस छूट के चलते आधी-आधी रात तक घूमने से छात्र-छात्राए गुरेज नहीं करते।  चाहे जो भी हो, आखिर ये कालेजियन्स अपरिपक्व उम्र वाले नवजवान हैँ। जमाने की ऊंच-नीच अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। इस कड़ी में धोखा भी खाते हैँ, और कई बार अपना भविष्य भी तबाह कर लेते हैँ। बच्चों को बर्बादी से बचाने में अभिभावकों का कठोर अनुशासन भी बहुत बड़ा फैक्टर निभाता है। इसी तरह की व्यवस्था बाहर से पढऩे आए छात्र-छात्राओं को मुहैया कराये जाने का प्रयास जरूरी है।अलबत्ता दुर्ग जिला पुलिस के एसएसपी ओपी पाल ने इस दिशा में शिकंजा कसने का प्रयास आरंभ कर दिया है। निजी हास्टल चलाने वाले या विद्यार्थियों को किराए पर निवास मुहैया कराने वालों की बैठक लेकर एसएसपी श्री पाल ने अहम दिशा-निर्देश दिए हैँ। खासतौर पर आने-जाने का नीयत समय, रहने वाले छात्र-छात्राओं का पूर्ण विवरण जरूरी तौर पर रखने कहा गया है।
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भू-जल पर सरकारी कब्जे की कवायद

- नदियां बिकीं, अब बारी जमीन के भीतर मौजूद पानी की

- विधेयक पारित हुआ तो औद्योगिक घरानों की होगी पौ-बारह, किसानों को पीटना होगा सिर

दक्षिणापथ डेस्क
रायपुर। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में जब शिवनाथ नदी को बेच दिया गया तो पूरे देश में हंगामा हुआ, लेकिन अब इसी छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार औद्योगिक घरानों को लाभान्वित करने बेहद चतुराई से भू जल का पूरा अधिकार अपने पास केन्द्रित कर रही है और पूरा देश बेखबर है। डॉ. रमन सरकार की मंशा यदि पूरी हो जाती है तो जमीन से बिना सरकारी अनुमति पानी निकालना अपराध हो जाएगा। कुआं और बोर खनन तो दूर की बात है, पूर्व के स्रोतों पर भी बिजली के मीटर की तर्ज पर पानी के मीटर लग जाएंगे। ऐसे समय में जबकि कोयला खदानों के आबंटन को लेकर छत्तीसगढ़ की सरकार पहले से ही संकट में है, यह मसला उसके गले की हड्डी बन सकता है। सवाल यह भी है कि कोयले की कालिख को, इसी पानी से धोने की कोशिश तो नहीं हो रही ?
रमन सरकार एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है, जिससे भू-जल पर सरकार का सीधा अधिकार होगा। किसान हितैषी होने का दंभ भरने वाली राज्य की भाजपा सरकार ऐसा कानून बनाने जा रही है, जिसके लागू हो जाने पर किसानों को बूंद-बंूद पानी के लिए तरसना पड़ेगा। वहीं कार्पोरेट्स क्षेत्र के लोग भूजल का मनमाना दोहन कर सकेंगे। प्रस्तावित छग भू-जल विधेयक अधिनियम में भू-जल पर समाज का नहीं, सरकार का अधिकार होगा। सरकार से पूछे बिना न वे कुआं खोद सकेंगे और न ही ट्यूबवेल लगा सकेंगे। महाभारत युद्ध के दौरान बाणों की शैय्या में पड़े भीष्म पितामह की प्यास दूर करने के लिए अर्जुन ने धरती में बाण चला कर भूजल से पानी निकाला था। किंतु अब छत्तीसगढ़ राज्य में कोई अर्जुन शासन की अनुमति लिए बगैर धरती में छेद नहीं कर सकेगा, और न ही सीधे भूजल निकाल कर किसी भीष्म पितामह की प्यास बुझा सकेगा। दरअसल, रमन सरकार भू-जल प्रबंधन पर अधिकार करने और एक-एक बूंद का हिसाब रखने का मन बना लिया है। इसके लिए जल संसाधन विभाग छग भूजल (विकास एवं प्रबंधन का विनियमन तथा नियंत्रण) विधेयक 2012 का प्रारूप तैयार कर चुकी है। जिसमें भू-जल के नियंत्रण व प्रबंधन के लिए एक प्राधिकरण का गठन किया जाएगा।
इस विधेयक की प्रस्तावना में कहा गया है कि तेजी से औद्योगिकीकरण और कालोनियों के निर्माण के कारण भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है और इसका स्तर नीचे जा रहा है। लिहाजा इस विधेयक के लागू होने पर भूजल के अतिदोहन पर रोक लगेगी एवं गुणवत्ता बनाए रखने के साथ-साथ सभी वर्गों के लिए भूजल की उपलब्धता बनी रहेगी। जल संसाधन विभाग ने भारत सरकार के जलसंसाधन विभाग को  एक फरवरी 2004 में लिखे पत्र का हवाला देते हुए कहा है कि प्रस्तुत विध्ेायक केंद्रीय सरकार द्वारा भूजल विकास और प्रबंधन के विनियम एवं नियंत्रण के लिए राज्यों को प्रेषित निर्देश के आधार पर बनाया गया है। प्रस्तावना में छग विधानसभा के नवंबर-दिसंबर 04 के शीतकालीन सत्र में पारित अशासकीय संकल्प क्रमांक 06 का उल्ल्ेाख किया गया है।
रमन सरकार का यह विधेयक ऊपर से देखने पर पवित्र दिखाई पड़ता है, पर इसके पीछे की मूल मंशा बेहद खतरनाक है। सिंचाई, पेयजल व निस्तार के लिए बोर के उत्खनन और भूजल के उपयोग को नियंत्रित करना, भूजल का व्यापारीकरण-बाजारीकरण करना, भूजल को उत्पाद बनाकर शुल्क सहित बेचना, शुल्क चुकाने की क्षमता रखने वाले उद्योग, साफ्ट डिं्रक, मिनरल वाटर कारोबारियों के हितों के लिए भूजल का संरक्षित करना ही है। वर्तमान में कोई भी किसान सूखते खेत को तर करने अपनी फसल की रक्षा करने अथवा कृषि उत्पाद में वृद्धि की मंशा से जब चाहे अपनी भूमि में बोर कराकर भूजल का इस्तेमाल कर सकता है।
इसी प्रकार कोई भी आदमी अपनी प्यास बुझाने और निस्तार की अन्य जरूरत पूरा करने अपनी जमीन पर बोर खुदाई कर सकता है। इसके लिए न तो सरकार से अनुमति लेनी पड़़ती है और न ही पानी का हिसाब देना पड़ता है। किसान व नागरिको को 1882 के भारतीय सुखाचार अधिनियकम की धारा 7 (ख) द्वारा मिला है। पर आज छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को यह जनाधिकार खटकने लगा है। यह विधेयक इसी अधिकार की कटौती करेगा। बिना अनुमति लिए व शुल्क दिए भूजल दोहन करने पर निर्धारित दर से तीन सौ प्रतिशत अधिक दंड वसूली की जा सकेगी।
नदी-नालों में बहते पानी को संरक्षित करने के लिए सरकार करोड़ों-अरबों रूपए खर्च कर एनीकेट, बांध, बैराज बनाती है, लेकिन भूजल संरक्षण के लिए सरकार को एक रूपया तक खर्च करना नहीं पड़ता। कुंआ और नलकूपों के जरिये भूजल को सतह पर लाया जाता है। वर्षाकाल में पानी पुन: इस अंडर ग्राउंड जल भंडार में समा जाता है। छग के खेतों में भरा पानी वाष्पीकृत होकर बारिश के जरिये नीचे चला जाता है। इस प्रकार जलचक्र चलता रहता है। कृषि कार्य से इस जलचक्र पर कोई बाधा नहीं पहुंचती।
दरअसल, सरकार की चिंता 140 से अधिक उन औद्योगिक परियोजनाओं, जिनमें 60 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन करने वाले 70 से अधिक थर्मल पावर प्लांटों को लेकर है, जिन्हें हर साल 138.2 करोड़ घनमीटर पानी की जरूरत है। छत्तीसगढ़ में हर साल करीब 11 सौ मि.मी. औसत वर्षा होती है। राज्य की नदियों में 48,296 मि.घ.मी पानी बहता है, जो देश में उपलब्ध कुल सतही जल का 3.2 प्रतिशत है। छग के भूगर्भीय बांध में 14548 मि.घ.मी पानी संग्रहित है, जो देश में कुल भूजल का 3.7 प्रतिशत है। छग में कुल सतही जल में से मात्र 18,249 मिघमी जल का ही उपयोग किया जाता है, जो 38 प्रतिशत है। शेष 62 प्रतिशत जल व्यर्थ बहकर समुद्र में समा जाता है। छग की तीन चौथाई आबादी कृषि पर निर्भर है। प्रदेश में सिंचाई का रकबा, कृषि योग्य कुल रकबे का मात्र 39 प्रतिशत है। इसमें से 27 प्रतिशत सिंचाई, सतही जल से और दो प्रतिशत भूजल से किया जाता है। 20 साल पहले राज्य में सिचित क्षेत्र का रकबा 23 प्रतिशत था, जो मात्र 6 प्रतिशत ही बढ़ सका है। छग राज्य निर्माण के बाद सिंचाई सुविधा बढ़ाने के लिए कोई विशेष परियोजना नहीं बनाई गई। यदि नदियों में व्यर्थ बहने वाले 62 प्रतिशत पानी को रोककर खेतों तक पहुंचाया जाता, तब छत्तीसगढ़ इतना सामथ्र्यशाली होता कि पूरे देश की खाद्यान्न जरूरतों को अकेले ही पूरा कर लेता। किसान मालामाल होते, और उन्हें सिचाई के लिए भूजल इस्तेमाल की जरूरत तक नहीं पड़ती।

किसानों के लिए सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध कराने के बजाए राज्य सरकार कृषि हेतु भूजल के उपयोग पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रही है। राज्य सरकार के इस कृत्य में केंद्र सरकार पूरी मदद कर रही है। इसके लिए नई राष्ट्रीय जल नीति 2012 का मसौदा तैयार कर लिया गया है। इसमें जल के उपयोग की प्राथमिकता, पेयजल, निस्तार, ङ्क्षसचाई और इसके बाद औद्योगिक-व्यवसायिक  को बदला जा रहा है। जल को उत्पाद मानकर इसका मूल्य निर्धरित किया जा रहा है। जल को लाभ अर्जित करने की वस्तु बनाया जा रहा है। नई नीति के अनुसार, जो वस्तु का मूल्य चुकाएगा, वही उसका उपभोग कर सकेगा। जाहिर है, औद्योगिक घराने साफ्ट ड्रिंक कंपनी, मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनियां और मनोरंजन के लिए वाटर गेम संचालित करने वालों के अलावा कालोनियों का निर्माण करने वाले रियल स्टेट कारोबारी पानी का कोई भी मूल्य चुकाने में सक्षम रहते हैँ। क्योंकि इसके बदले वे भारी मुनाफा अर्जित करेंगे। लेकिन किसान और आम आदमी पानी की कीमत चुकाने की स्थिति में सदैव नहीं रहते। इन हालातों में उन्हें भविष्य में पानी से महरूम होना पड़ेगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 (ख) एवं (ग) के मुताबिक जल पर मानव, जीव-जंतुओं का सामुदायिक अधिकार है। और भारतीय सुखाचार अधिनियम 1882 के अनुसार भूजल पर भू-स्वामी का अधिकार माना गया है। केंद्र सरकार इस अधिकार को छीनने के लिए संविधान एवं अधिनियम में संशोधन करने पर विचार कर रही है। यदि ये संशोधन हो जाते हैं तब छग शासन का काम भी आसान हो जाएगा। उस स्थिति में छग भूजल विधेयक-2012 को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।

जहंा तक भूजल के गिरते स्तर पर चिंता का सवाल है, राज्य में अधिकांश उद्योगों में भूजल का अवैधानिक इस्तेमाल हो रहा है। एक उद्योग में दस से बीस की संख्या में हजार से तीन हजार फुट गहराई वाली बोर में उच्च क्षमता वाले पंप लगाकर जल दोहन किया जाता है। राजनांदगांव जिले में आई.बी. ग्रुप के उद्योग, बालोद जिला के गोदावरी पावर एवं स्टील लिमि. तथा दुर्ग जिले में जेके लक्ष्मी सीमेंट एवं पावर कंपनियों के खिलाफ भूजल का औद्योगिक प्रयोजन हेतु उपयोग किए जाने की शिकायत की गई थी। एक मात्र रायगढ जिले में जल संसाधन विभाग ने उन उद्योगों को नोटिस भेजा जो वैध अनुमति के बिना बोर कर भूजल का औद्योगिक दोहन कर रहे हैं। भूजल का उपयोग करने वाले उद्योग जल को खतरनाक रूप में प्रदूषित तो करते ही है, जल के पुर्नभरण में कोई सहयोग भी नहीं निभाते। इसके बावजूद केंद्र तथा राज्य की सरकारें उन पर इतनी मेहरबानी इसलिए करती है, क्योंकि वे धन-धान्य से संपन्न हैं। छग भूजल विधेयक 2012 की धारा 8, 9, 13 व 22 के उपबंध में किसानों एवं आम जनता को भूजल के निर्बाध उपभोग को नियंत्रित करने के लिए शामिल करने का प्रावधान है।

पानी का भी आएगा बिल

इस विधेयक के लागू होने के बाद बिना अनुमति के बोर व भूजल का उपयोग करना दंडनीय अपराध (धारा19) होगा। जिसकी सुनवाई सिर्फ प्रथम श्रेणी न्यायालय में हो सकेगी। कोई अपनी जमीन से पानी निकालने के लिए भी स्वतंत्र नहीं रहेगा। भूजल से निकाले गए पानी के एक-एक बूंद का हिसाब देना होगा। बिजली की रीडिंग के लिए मीटर लगने की बात तो सभी जानते हैं। ठीक इसी तर्ज पर पानी के लिए भी मीटर लगाया जाएगा। निकाली गई पानी की मात्रा मीटर में देखकर शुल्क वसूली की जाएगी।
सरकार की व्यापारिक मंशा
कहते हैं, तीसरा विश्वयुद्ध पानी के मुद्दे पर होगा। विधेयक लाने के पीछे सरकार की व्यापारिक मंशा छुपी है। विधेयक के प्रस्ताव में औद्योगिकीकरण व कालोनीकरण के चलते नीचे गिरते भूजल स्रोत पर नियंत्रण को वजह बताया गया है। किंतु विधेयक के आंतरिक मसौदे में औद्योगिक, वाणिज्यिक एवं मनोरंजन के लिए शुल्क अदा कर जितना चाहे जल का इस्तेमाल किया जा सकेगा। प्रस्तावना व भीतरी मसौदे में विरोधाभास का मतलब सहजता से समझा जा सकता है। पानी के इस्तेमाल पर सरकार को कोई एतराज नहीं, उन्हें सिर्फ शुल्क से मतलब है। विधेयक लागू हो जाने के बाद सरकार को सीधे तौर पर पानी का व्यवसाय करने का अधिकार मिल जाएगा। वहीं, आमलोग व किसानों से यह अधिकार छीन लिया जाएगा। इसके बाद कोई किसान अपने खेत में जहंा चाहे वहंा बोर नहीं खुदवा सकेगा।

नहीं बनने देंगे ऐसा कानून

छग जल अधिकार रक्षा मंच के संयोजक राजकुमार गुप्त पूरे प्रदेश में ऐसे इकलौते शख्स हैं, जिन्होंने इस विधेयक पर आपत्ति लगाई है। उनका कहना है कि यह विधेयक भारतीय सुखाचार अधिनियम 1882 का सीधा उल्लंघन करता है। गुप्त के मुताबिक, राज्य सरकार चुपचाप इस विधेयक को कानून बना देने की फिराक में है क्योंकि जैसे-जैसे समय गुजरता जाएगा, पानी का मोल भी बढ़ता जाएगा। पानी की कीमत व इस विधेयक की असली इबारत यदि जनता के जेहन में बैठ गई, तो वह हर हाल में खिलाफत में आ खड़ी होगी।
...तो पंूजीपति  करेंगेे फैसला
विधेयक अमल में आने पर एक भूजल प्राधिकरण का गठन किया जाएगा। जिसका अध्यक्ष सरकार तय करेगी। प्राधिकरण में केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा नामित दो सदस्य, तीन सरकारी महकमों के भूजल विशेषज्ञ प्रतिनिधि के अलावा दो अन्य सदस्य शामिल होंगे। अलबत्ता, आम आदमी और किसान प्रतिनिधि के तौर पर प्राधिकरण में कोई नहीं होगा।
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बंदियों के साथ पुलिस की मौज-मस्ती

न्यायालय के इर्दगिर्द रोज दिखता है नजारा
दुर्ग। जेल से कोर्ट में पेशी के दौरान बंदियों को किसी होटल, ढाबे, ठेले या कहीं खाना खिलाना नियमत: गलत है। नियम कहता है कि पेशी के दौरान बंदी को जेल से कोर्ट हाजत लाया जाएगा। वहां से उसे कोर्ट में पेश किया जाएगा और फिर कोर्ट हाजत लाकर जेल वापस भेज दिया जाएगा। लेकिन पेशी के लिए दुर्ग लाए गए बंदियों को पुलिस वालों के साथ ही रोजाना मौज-मस्ती करते देखा जा सकता है। पुलिस के जवान इन बंदियों के साथ न केवल होटलों में चाय-नाश्ता करते दिखते हैं, बल्कि पान ठेलों पर सिगरेट का कश लेते हुए भी नजर आते हैं।
पुलिस को मिलते हैं रूपए
कोर्ट परिसर के आसपास के इलाकों में खासतौर पर यह नजारा देखा जा सकता है। दरअसल, बंदियों की खिदमत या उनके प्रति नरमी दिखाने के ऐवज में पुलिस कर्मियों को रूपए मिलते हैं। यह एक सौ से एक हजार रूपए तक हो सकते हैं। बंदियों की स्थिति के हिसाब से राशि कम या ज्यादा होती है। यदि बंदी रसूखदार होता है तो उसके साथ पुलिस के जवान को भी काफी फायदा हो जाता है। जबकि पेशी के लिए लाए जाने वाला बंदी यदि गरीब या मध्यमवर्गीय परिवार से होता है तो बंदी के जरिए उसके परिजनों से रूपये आदि की डिमांड की जाती है। कई बार बंदी खुद होकर पुलिस कर्मियों को छूट या ढिलाई बरतने के ऐवज में रूपए देने की बात कहते हैं। बुरा बर्ताव नहीं करने के आश्वासन पर भी रूपए मिलते हैं। बंदी के साथ खाने और पीने की सुविधा अतिरिक्त होती है।
कोर्ट परिसर में नजारा आम
पेशी से पहले या बाद में बंदी और पुलिस के जवान कोर्ट परिसर स्थित गार्डन के आसपास बैठते हैं। यहां बंदी के परिजन कई तरह की सुविधाएं मुहैय्या कराते हैं। कोल्ड ड्रिंग्स से लेकर खाने की कई तरह की सामग्री बंदी को सरेआम दी जाती है। जबकि ऐसा करना नियमानुसार गलत है। बावजूद इसके न केवल बंदी बल्कि पुलिस कर्मी भी ठंडे के साथ समोसा-आलू गुंडा आदि खाते दिखते हैं। अलबत्ता पुलिस कर्मी के हाथ में बंदी को पहनाई गई हथकड़ी का एक छोर जरूर होता है। भले ही हथकड़ी छुड़ाकर भागने जैसे कोई घटना यहां घटित नहीं हुई है, लेकिन इस बात की संभावना लगातार बनी रहती है कि कोई बंदी, कभी भी पुलिस के भरोसे का फायदा उठा करता है।
बाहरी बंदियों को वीआईपी ट्रीटमेंट
आश्चर्य की बात तो यह है कि जिले से बाहर के बंदियों को पेशी में लाने का फायदा भी ज्यादा होता है। कुछ समय पहले जगदलपुर केन्द्रीय जेल से लाए गए एक अपराधी को पुलिस कर्मी उसके रिश्तेदार के घर ले गए थे, जहां शाही ठाठ-बाठ के साथ खाने और पीने की महफिल जमी थी। स्थानीय पुलिस ने इसका खुलासा किया था, जिसके बाद बंदी के साथ आए पुलिस कर्मियों पर कार्रवाई भी की गई थी।

कोई माई-बाप नहीं

एक बार पेशी के निकलने के बाद बंदी पूरी तरह से एक या दो पुलिस कर्मियों पर आश्रित हो जाते हैं। ऐसे में बंदी आजादी का पूरा फायदा उठाते हैं। खाने-पीने से लेकर अन्य तरह की अय्याशियां, पुलिस वालों के सामने और उनकी शह पर होती है, इसकी वजह महज चंद रूपए ही होते हैं।
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कचरे से करोड़ों पीटने को तैयार किवार
शासन ने दिया तीन नगर निगमों को लूटने का लायसेंस
दुर्ग। बेंगलुरू की कंपनी किवार एनवायरन ग्रुप को छत्तीसगढ़ सरकार ने तीन नगर निगमों को लूटने का लायेंसस दे दिया है। कचरे से खाद और बिजली बनाने की योजना लेकर आई यह कंपनी दरअसल, उच्चस्तरीय सेटिंग कर हर साल करोड़ों रूपए पीटने के चक्कर में है और राजधानी में बैठे लोग कमीशन की मोटी राशि के फेर में आम लोगों पर करों का एक और बोझ थोप चुके हैं। आम लोगों में सफाई की इस नई व्यवस्था को लेकर काफी रोष है। इसका खामियाजा भाजपा की सरकार को आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है।
भिलाई, दुर्ग के बाद किवार ग्रुप ने रायपुर नगर निगम से समझौता कर लिया है। शासन के संरक्षण में हुए इस समझौते के मुताबिक कंपनी को अगले 30 सालों तक शहर में सफाई और कचरे के प्रबंधन का काम देखना है। लेकिन इन नगर निगमों में किवार से संबंधित तथ्यों और समझौता शर्तों को जिस तरह छिपाया जा रहा है, उससे समझौते में गड़बडिय़ों की संभावनाओं को बल मिलता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किवार की वर्षांत तक शुरू होने वाली सफाई सेवाओं का असर सैकड़ों लोगों की आजीविका पर पडऩे वाला है। योजना क्योंकि पब्लिक-प्रायवेट-पार्टनरशिप के तहत संचालित होगी, इसलिए आम आदमी के खाते में एक और कर जुड़ जाएगा। अलबत्ता शहरों से उठने वाले कचरे पर नगर निगम को जरूर प्रति क्विंटल के हिसाब से राशि मिलती रहेगी। इसका सीधा-सीधा मतलब तो यह है कि किवार कंपनी से लेकर नगर निगम और नेता से लेकर राजनेता तक सभी कचरे से लाल होंगे। खामियाजा भुगतेगा तो आम आदमी।
सीवरेज-मेडिकल वेस्ट से तौबा
किवार कंपनी के हाथों में शहरों की साफ-सफाई व्यवस्था तो होगी, लेकिन कंपनी छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के लिए बड़ा सिरदर्द साबित होती रही सीवरेज जैसी समस्या का समाधान नहीं करेगी। कंपनी मेडिकल वेस्ट भी नहीं उठाएगी। इन कार्यों के लिए नगर निगमों को अलग से व्यवस्था करनी होगी। इसलिए लोगों को इस बात के लिए अभी से परिपक्व होना होगा कि शहर की गलियों या मुख्य स्थानों पर यदि गंदा पानी बह रहा है और पूरे वातावरण को प्रदूषित कर रहा है, तो उसे बर्दाश्त किया जाए।

घर के आकार पर कर

किवार ग्रुप घर के आकार के आधार पर यूजर चार्ज वसूलेगा। यूजर चार्ज मकान के निर्माण क्षेत्र के आधार पर आम घरों और कामर्शियल क्षेत्रों के लिए अलग-अलग होगा। पांच सौ वर्गफीट से कम पर 10 रुपए, 500 से 750 तक पर 15 रुपए, 751 से 1000 तक 25 रुपए और 1000 से अधिक पर पर 50 रुपए के प्रस्ताव पर निर्णय लिया गया। इसके अलावा रेस्टोरेंट में ग्राहक-कुर्सियां 25 से कम होने पर 250 रुपए का चार्ज रखा गया है।
पूरा खेल कमीशन का
सूत्रों की मानें तो शासन ने कमीशनखोरी के चक्कर में निजी कंपनी को सफाई का ठेका दिया है। जानकार बताते हैं कि इस कंपनी को कई राज्यों ने इसलिए प्रतिबंधित कर रखा है क्योंकि उसके द्वारा स्थापित उद्योगों से वातावरण खतरनाक तरीके से प्रदूषित हो जाता है। कंपनी के कचरा संयंत्र के आसपास के इलाके गम्भीर बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इस आधार पर कंपनी का सेमरिया में स्थापित होने वाला संयंत्र न केवल इस क्षेत्र बल्कि आसपास के पूरे इलाके के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि इस कंपनी को पर्यावरण मंत्रालय की हरी झंडी भी नहीं मिल पाई है।
शहर-शहर में अंतर
छत्तीसगढ़ को देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में माना जाता है। यह वह राज्य है, जहां आज भी लोग खुले स्थानों पर शौच करते हैं। पान-गुटखे की पीक उगलते, सार्वजनिक स्थानों को बाथरूम बनाते लोगों और बच्चों को नालियों या सड़क किनारे निवृत्त होते खुलेआम देखा जा सकता है। इसके अलावा घर की गंदगी को घर से बाहर या नाले-नालियों में फेंकने की प्रवृत्ति भी आम है। दरअसल, लोगों में जागरूकता का जो अभाव है, वह इसी वजह है कि यह राज्य पिछड़ा हुआ है। ऐसे में किवार जैसी कंपनी से, जिसके पास पिछड़े इलाकों में काम करने का रत्तीभर भी अनुभव नहीं है, अरबों रूपयों के समझौते करना नादानी और बेवकूफी ही है। आम आदमी भी यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है कि उसे निजी कंपनी को सफाई के लिए जेब ढीली करनी पड़ेगी। भले ही कंपनी लम्बे-चौड़े वायदे करे, किन्तु हकीकत यह है कि ऐसी अनुभवहीन कंपनी के साथ समझौता करना बैल को सिंग मारने का न्यौता देने के बराबर है।

आम आदमी करे बहिष्कार

नगर निगमों ने जिस गुपचुप तरीके से किवार कंपनी के साथ समझौते पर दस्तखत किए, और क्षेत्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को विश्वास में नहीं लिया, उसके बाद आम लोगों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वे किवार कंपनी का बहिष्कार करें। यही एकमात्र रास्ता है, जिसके चलते कंपनी के कुचक्र से बचा जा सकता है। लोग यदि कंपनी के कर्मचारियों द्वारा घर-घर पहुंचकर दो रंगी डिब्बे स्वीकार न करें तो इसका सीधा संदेश यही जाएगा कि आम आदमी निजी कंपनियों से सफाई नहीं चाहता।
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