Saturday 20 October 2012

इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री बने नामचीन कालेज

छत्तीसगढ़ की साख को लगाया बट्टा

दक्षिणापथ  डेस्क

इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री बने नामचीन कालेज

दुर्ग। बेहतर शैक्षणिक वातावरण के लिए विख्यात छत्तीसगढ़ की साख को निजी इंजीनियरिंग कालेजों के कुछ पूंजीपतियों ने जोर का झटका दिया है। प्रदेश के मुखिया से लेकर आलाधिकारी भी स्वीकार रहे हैं कि कालेज संचालकों की भर्राशाही, मनमानी, नियम-कायदों को दरकिनार करने, लेन-देन, कोर्ट-कचहरी के चक्कर और सीबीआई की दबिश जैसे मामलों ने राज्य के शैक्षणिक वातावरण को बुरी तरह प्रदूषित किया। शायद यही वजह है कि कुल 17 हजार सीटों वाले छत्तीसगढ़ राज्य में इस सत्र में 7 हजार सीटें खाली रह गईं। जबकि इससे पूर्व ऐसा कभी नहीं हुआ। मैनेजमेंट कोटे के नाम पर इन नामी गिरामी कालेजों ने जो खेल खेला उसी का नतीजा है कि छोटे और मंझोले कालेजों पर बंदी की नौबत आ गई। पिछले साल जहां 2 कालेज बंद हो गए, वहीं इस साल 4 कालेजों के अस्तित्व संकट में हैं। जाहिर है कि कालेजों के बंद होने का पूरा फायदा बड़े कालेजों को होगा।   
उद्योग और किराने की दुकान चलाने वाले लोग जब शिक्षा के ठेकेदार बन जाएं तो छात्रों के भविष्य का भगवान ही मालिक होता है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद अचानक कुछ उद्योगपतियों ने शिक्षा की ठेकेदारी शुरू की और यहीं से एक बड़े खेल की शुरूआत भी हो गई। इस खेल में चंद रूपयों के लालच में अफसर से लेकर राजनेता तक मोहरे बनते रहे और शिक्षा के ठेकेदारों की दुकानदारी ऐसी चली कि वे प्रदेश का मुखिया बनाने का दम्भ भरने लगे। इस पूरे खेल का भंडाफोड़ कुछ समय पहले सीबीआई ने दुर्ग जिले के एक नामी गिरामी होटल में रूके कुछ अधिकारियों की धरपकड़ के साथ किया। उसी दौरान बहुत सी बातों के साथ यह भी सामने आया कि कालेजों की मान्यता से लेकर संबद्धता और सीटों के कोटे को लेकर किस तरह अफसरों के मुंह नोटों से बंद किए जाते हैं। इसी एक घटना से यह भी तथ्य सामने आया कि छत्तीसगढ़ की शिक्षा व्यवस्था के साथ कुछ कालेज संचालक कितनी बेरहमी से बलात्कार कर रहे हैं। इसका नतीजा भी सामने हैं। यहां के कालेजों से इंजीनियर बनकर निकलने वालों को दीगर राज्यों या बड़े औद्योगिक घरानों में जगह नहीं मिल पा रही है। इसके अभाव में उन्हें मनरेगा जैसी योजनाओं में काम करना पड़ रहा है।
वैसे तो इंजीनियरिंग कालेज प्रारम्भ करने की लम्बी प्रक्रिया होती है, लेकिन इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री खोलकर बैठे शिक्षा के ठेकेदारों ने इस पूरी प्रक्रिया को रूपयों के बल पर इतना संक्षिप्त कर दिया कि आगे चलकर उन्हें अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, नई दिल्ली (एआईसीटीई) के साथ ही तकनीकी शिक्षा संचालनालय रायपुर और स्वामी विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय तक की भी परवाह नहीं रही। इसका ताजा उदाहरण तो रूंगटा कालेज में की गई 500 छात्रों की भर्ती ही है, जिसके लिए अनुमति लेना भी जरूरी नहीं समझा गया। अब इन 500 छात्रों का भविष्य अधर में लटका हुआ है और इन छात्रों से भर्ती से नाम पर करोड़ों की कमाई करने वाले कालेज संचालकों के सिर पर जूं तक नहीं रेंग रही।

ऐसे लग रहा है चूना... 

एक सोसासटी चला रही कई कालेज : गौरतलब है कि किसी भी कालेज संचालक को कालेज के नाम पर मान्यता नहीं मिलती। इसके लिए सोसायटी बनानी पड़ती है। छत्तीसगढ़ में तकनीकी शिक्षा के ठेकेदार बन बैठे रूंगटा ग्रुप ने जीडीआर एजुकेशन सोसायटी तो बनाई लेकिन इस सोसायटी की आड़ में कई अन्य कालेजों का संचालन किया जा रहा है। जबकि नियमानुसार एक सोसायटी एक ही कालेज चला सकती है। जानकार बताते हैं कि रूंगटा प्रबंधन एक ही नाम का उपयोग कर न केवल लोगों बल्कि सरकार को भी दिग्भ्रमित कर रहा हैं। सवाल यह है कि एक ही सोसायटी का उल्लेख करने के बाद क्या सभी कालेजों की इन्कमटैक्स बैलेंसशीट भी जमा की जा रही है? सूत्र बताते हैं कि ऐसा नहीं हो रहा है। कमोबेश यही स्थिति भारती इंजीनियरिंग कालेज को लेकर भी है। यह कालेज श्रीजुग महादेव के नाम पर सोसायटी चला रही है।
 उसने एक ओर रविशंकर विवि से मान्यता ले रखी है तो दूसरी तरफ स्वामी विवेकानंद तकनीकी विवि से भी उसे मान्यता मिली हुई है। यह सवाल यहां भी कायम है कि एक ही सोसायटी कई कालेजों से मान्यता कैसे ले सकती है? जानकारों के मुताबिक, यहां भी इन्कमटैक्स में एक ही बैलेंस शीट दिखाई जा रही है, इससे शासन को भी करोड़ों रूपयों के राजस्व का नुकसान हो रहा है।

भवन नहीं, इसलिए दूसरी पाली

इसे निजी कालेज संचालकों की पैसों की भूख ही कहेंगे कि छात्रों से खचाखच भरे रहने के बाद भी कालेज संचालकों ने स्कूलों की तर्ज पर दूसरी पाली का कोटा भी स्वीकृत करवा लिया। दुर्ग जिले के रूंगटा इंजीनियरिंग कालेज ने पहली बार रूपए कमाने की इस अनोखी तरकीब को अंजाम दिया। भ्रष्ट व्यवस्था ने इस कालेज के लिए 1000 सीटें भी स्वीकृत कर दीं। वह तो भला तो स्वामी विवेकानंद तकनीकी विवि का, जिसने समय निकल जाने का हवाला देते हुए रूंगटा कालेज को इसकी मंजूरी नहीं दी। यदि ऐसा हो जाता तो छोटे और मंझोले इंजीनियरिंग कालेजों को ही इसका सीधे-सीधे नुकसान होता। इसका दूसरा प्रभाव छोटे कालेजों में तालाबंदी के रूप में भी सामने आता।

यह है प्रक्रिया

निजी इंजीनियरिंग कालेज प्रारम्भ करने के लिए सर्वप्रथम एआईसीटीई के समक्ष मान्यता के लिए आवेदन करना होता है। आवेदन करने के बाद दिल्ली से एक टीम निरीक्षण करने आती है। वह भवन से लेकर शैक्षणिक स्टॉफ, कालेज का वातावरण, स्तर, उपलब्ध सुविधाएं, हॉस्टल, खेल व उसके लिए मैदान समेत तमाम चीजों का बारीकी से अवलोकन करती है। यदि यह टीम संतुष्ट होती है और मान्यता दे देती है तो दूसरे चरण में कालेज संचालक को तकनीकी शिक्षा संचालनालय, रायपुर से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होता है। इसके बाद अंत में कालेज को तकनीकी विवि से संबद्धता के लिए आजमाईश करनी होती है।

...और होता यह है...

यह तो हुई प्रक्रिया की बात। लेकिन वास्तविकता यह है कि इस प्रक्रिया का पालन नहीं हो पाता। पहले चरण की प्रक्रिया के तहत दिल्ली से आने वाली टीम को नामी होटलों में ठहराकर उनकी खातिरदारी कर दी जाती है। खुश होकर अफसर बिना किसी निरीक्षण-परीक्षण के ही मान्यता दे देते है। दूसरे चरण में राजधानी रायपुर में बैठे अफसरों की जेबें गरमाकर एनओसी हासिल करने के बाद अंत में तकनीकी विवि के जिम्मेदार लोगों को संतुष्ट करना होता है। इस पूरी प्रक्रिया में जिसकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है, वह है रूपए। रूपयों का खेल इंजीनियरिंग की सीटों और कोटे के दौरान भी खेला जाता है। नतीजतन पूंजीपति कालेज संचालक अपनी मनमर्जी से वह सब कुछ करवा लेते हैं, जो वे चाहते हैं। छत्तीसगढ़ में आज भी ऐसे कई इंजीनियरिंग कालेज हैं, जो दो या तीन कमरों में संचालित हो रहे हैं। इतना ही नहीं, एक ही भवन में कई-कई कालेजों का चलना भी बेहद आम है। यह सब कुछ भ्रष्ट व्यवस्था और उसकी उससे भी ज्यादा भ्रष्ट अफसरशाही की वजह से ही संभव हुआ।

  300 करोड़ की चपत

छत्तीसगढ़ के 34 निजी इंजीनियरिंग कालेजों में कुल 17 हजार सीटें हैं। दो साल पहले तक इन 17 हजार सीटों के लिए जमकर मारमारी होती थी। हालात ऐसे निर्मित होते थे कि समय से पहले ही यह सीटें भर जातीं थीं। किन्तु पिछले साल राज्य के कालेज संचालकों की वजह से इतने ज्यादा विवाद हुए कि इस साल दीगर प्रदेशों से आने वाले छात्रों ने यहां आने से परहेज किया। परिणामस्वरूप कुल 7 हजार सीटें खाली ही रह गईं। इससे कालेज संचालकों को ही 300 करोड़ रूपए की शुद्ध चपत लगी। शिक्षा हब के रूप से ख्यात रहे छत्तीसगढ़ की पहचान किसी समय पूरे देश में रही है, लेकिन इंजीनियरिंग कालेजों के विवाद ने छत्तीसगढ़ को पूरे देश में बदनाम करके रख दिया।

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