Wednesday 19 December 2012

भाई के लिए टिकट की तलाश में सांसद सरोज पाण्डेय !

दक्षिणापथ     16 - 31 december

वैशाली नगर पर टकराव की नौबत! - भाई के लिए टिकट की तलाश में सांसद - प्रेमप्रकाश भी लंगोट कसकर तैयार भिलाई। महापौर से विधायक और विधायक से सांसद निर्वाचित हुईं सरोज पाण्डेय को अब अपने भाई के लिए टिकट की तलाश है। विधानसभा चुनाव का वक्त करीब आ रहा है, ऐसे में लॉबिंग करने और माहौल बनाने में माहिर सांसद सरोज एक बार फिर अपनी राजनीतिक गोंटियां बैठाने में जुट गईं हैं। मजे की बात है कि पूर्व विधानसभाध्यक्ष प्रेमप्रकाश पाण्डेय भी भिलाई की अपेक्षा वैशाली नगर पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। उनके लोग भी इसी क्षेत्र में ज्यादा सक्रिय हैं। ऐसे में भाजपा के ही दो गुटों में टकराव की नौबत निर्मित हो रही है। अब तक पर्दे के पीछे रहकर राजनीतिक महारत दिखाने वाले सांसद सरोज पाण्डेय के भाई राकेश पाण्डेय अब सक्रिय राजनीति के लिए छटपटा रहे हैं। सांसद सुश्री पाण्डेय भी उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने प्रयासरत् हैं। कुछ समय पहले जब सांसद समर्थकों ने उनके भाई लिए विधानसभा सीट की तलाश शुरू की तो घूम-फिरकर सबकी निगाहें वैशाली नगर ही आकर टिक गई थी। यह वही सीट है, जिस पर पहली बार हुए चुनाव में सुश्री पाण्डेय ने जीत हासिल की थी। यह अलग बात है कि उन्हें कुछ ही महीनों में यह सीट छोडऩी पड़ी। तब हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने यह सीट भाजपा से छीन ली थी। कांग्रेस प्रत्याशी भजनसिंह निरंकारी ने तब भाजपा के आयातीत प्रत्याशी जागेश्वर साहू को हराया था। वर्तमान में भिलाई की तीनों सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। भिलाई विधानसभा क्षेत्र से जहां पूर्व राज्यमंत्री बीडी कुरैशी विधायक हैं तो दुर्ग ग्रामीण से प्रतिमा चंद्राकर। जानकार बताते हैं कि पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पाण्डेय ने पिछला चुनाव हारने के बाद भिलाई नगर विधानसभा से अपना ध्यान हटा लिया था। पिछले कुछ महीनों से उनकी पूरी गतिविधियां वैशाली नगर विधानसभा क्षेत्र से ही संचालित हो रही हैं। उनके विश्वस्त लोगों की टीम भी वैशाली नगर में ही सक्रिय है। ऐसे में कयास यह लगाया जा रहा है कि श्री पाण्डेय आने वाले चुनाव में इसी सीट की मांग कर सकते हैं। यदि सांसद भी अपने भाई के लिए इस सीट पर अड़ गईं तो भाजपा के दो दिग्गजों में टकराव लाजिमी हो जाएगा। ऐसे में इस टकराव का पूरा फायदा कांग्रेस को मिलने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। वैशाली नगर के लिए सांसद के प्रयासों को इस बात से भी बल मिलता है कि वे पिछले करीब एक साल में भिलाई में काफी सक्रिय रही हैं और यहां पार्टी के सबसे ताकतवर गुट को भी अपनी ताकत दिखाने में पीछे नहीं रहीं। पूरे भिलाई में उनके समर्थकों की संख्या में अचानक और बड़ी तेजी से इजाफा हुआ। इन सबको जोड़कर देखने से एक अलग ही तस्वीर उभरकर सामने आती है। भाजपा के भीतर ही यह कहा जाता है कि सुश्री पाण्डेय चुनौतियों को स्वीकार करने में कभी पीछे नहीं रहतीं। इसलिए उन्हें जहां भी चुनौती मिलती है, वहां वे समर्थकों की फौज के साथ अपनी ताकत का प्रदर्शन जरूर करतीं हैं। इसके बेमेतरा से लेकर साजा और दुर्ग से लेकर भिलाई तक कई उदाहरण भी गिनवाए जा सकते हैं। सांसद समर्थक हालांकि फिलहाल इस तरह की बातों को अफवाह बताते हैं। इन सूत्रों की मानें तो सुश्री पाण्डेय के लिए अपने समर्थकों को दो-चार सीटें दिलवाना कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिए यदि वे अपने भाई को टिकट दिलवाने प्रयासरत् हैं तो यह माना जाता चाहिए कि राकेश पाण्डेय की टिकट पक्की है। दूसरी ओर पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पाण्डेय के समर्थक भी इस बात से इनकार नहीं कर पा रहे हैं कि श्री पाण्डेय, वैशाली नगर से टिकट के दावेदार हैं। इन सूत्रों का साफ कहना है कि पार्टी में सभी को टिकट मांगने का अधिकार है। गैर छत्तीसगढिय़ा सीट अविभाजित दुर्ग जिले की 12 विधानसभाओं में सिर्फ वैशाली नगर ही ऐसी सीट है, जिसे गैर छत्तीसगढिय़ा कहा जा सकता है। परिसीमन से पहले तक हेमचंद यादव इसी क्षेत्र से सर्वाधिक वोट पाते रहे। अपने पहले चुनाव में श्री यादव की चुनावी हार की वजह यही सीट रही। वरिष्ठ नेता प्रेमप्रकाश पाण्डेय की शरण में आने के बाद श्री पाण्डेय ने अपने समर्थकों के मार्फत इस पूरे इलाके में ऐसी लॉबिंग की कि यहां से हेमचंद के लिए छत्तीसगढिय़ा जैसा मुद्दा गौढ़ हो गया। परिसीमन से पहले तक के सारे चुनावों में श्री यादव को इस क्षेत्र से भरपूर वोट मिले। परिसीमन के बाद हुए चुनाव में क्षेत्र के लोगों की मानसिकता बदली और यहां हुए पहले चुनाव में सरोज पाण्डेय निर्वाचित हुईं। उन्होंने स्थानीय प्रत्याशी बृजमोहन सिंह को हराया। लेकिन सांसद निर्वाचित होने के बाद उन्होंने यह सीट छोड़ दी। नतीजतन उपचुनाव में भजनसिंह निरंकारी ने छत्तीसगढिय़ा प्रत्याशी जागेश्वर साहू को पटखनी दे दी। दरअसल, सुश्री पाण्डेय के वैशाली नगर में ध्यान केन्द्रीत करने के पीछे भी कई कारण हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है कि लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें दुर्ग शहर, दुर्ग ग्रामीण, अहिवारा व पाटन विधानसभा क्षेत्रों से पराजय का सामना करना पड़ा। यही वजह है कि इन इलाकों को छोड़कर वे पिछले कुछ समय से बेमेतरा और भिलाई-दुर्ग में ज्यादा ध्यान दे रही हैं। जानकारों की मानें तो बेमेतरा से मुख्यमंत्री के एक रिश्तेदार को टिकट मिलने की संभावना है। उनकी बेमेतरा में सक्रियता के भी कई मायनें हैं। राजनीतिक गोंटियां बिठाने में महारथ सुश्री पाण्डेय दरअसल, कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना की तर्ज पर काम कर रही हैं। उन्हें यह भलीभांति मालूम है कि यदि बेमेतरा उनके हाथ नहीं आएगा तो कम से कम उसकी आड़ में वे अपनी पसंसीदा सीट को लेकर समझौता तो कर ही सकेंगी। यह भी कहा जा रहा है कि जिले की अन्य कोई सीट प्रभावित न हो, इसलिए टिकट वितरण के दौरान उन्हें एक टिकट देकर संतुष्ट किया जा सकता है। ००० अविभाजित दुर्ग में भाजपा के लिए 'फीलबैड - 12 में से एक भी सीट जीतने की स्थिति में नहीं - मंच दर्ज करा सकता है दमदार मौजूदगी दुर्ग। बस्तर पर नजरें जमाए बैठी भारतीय जनता पार्टी के लिए अविभाजित दुर्ग से बुरी खबर आ रही है। यहां की 12 विधानसभा सीटों में से भाजपा एक सीट पर भी जीतने की स्थिति में नहीं है। पिछले कुछ सर्वे तो इसकी चुगली कर ही चुके हैं, लेकिन स्थानीय परिस्थितियों से निकलकर जो खबरें आ रही है, उसके मुताबिक, यदि पार्टी ने आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर चेहरे नहीं बदले तो उसे अविभाजित दुर्ग जिले से खाता खोलना भी मुश्किल हो जाएगा। वर्तमान में भाजपा 7 और कांग्रेस 5 सीटों पर काबिज है। राजनीतिक लाभ लेने के लिए प्रदेश की डॉ रमन सिंह सरकार ने दुर्ग को तीन जिलों में तो बाँट दिया, लेकिन लाभ मिलना तो दूर अब उसकी बची-खुची साख भी इन इलाकों में धूमिल होती दिख रही है। बेमेतरा जिले की बात करें तो यहां के तीन विधानसभा क्षेत्रों में से दो फिलहाल कांग्रेस के और एक भाजपा के कब्जे में है। इनमें से साजा से रविन्द्र चौबे व बेमेतरा से ताम्रध्वज साहू कांग्रेस की अगुवाई कर रहे हैं जबकि नवागढ़ विधानसभा क्षेत्र से दयालदास बघेल विधायक और प्रदेश सरकार में केबिनेट मंत्री हैं। चुनाव जीतने के बाद से श्री बघेल के समर्थकों ने इस पूरे क्षेत्र में जो आतंक मचाया, उसके बाद उनकी जीत की संभावना को स्थानीय भाजपाई ही नकार रहे हैं। जानकारों की मानें तो नवागढ़ में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच दमदार मौजूदगी दर्ज कराने आतुर है। क्षेत्र में उसकी स्थिति फिलहाल दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों पर भारी पड़ रही है। इधर, साजा और बेमेतरा में कांग्रेस पहले से ही मजबूत है, इसलिए ऐसी संभावना न के बराबर है कि भाजपा इन दोनों सीटों पर कुछ ज्यादा कर पाएगी। उसके पास सिर्फ नवागढ़ में प्रत्याशी बदलने के रूप में विकल्प मौजूद है, वह भी काफी हद तक तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि स्थानीय लोग नए प्रत्याशी को कितना स्वीकार कर पाते हैं। नवोदित बालोद जिले की बात करें तो यहां भी 3 सीटें ही हैं। इन तीनों सीटों गुंडरदेही, बालोद व डौंडीलोहारा पर फिलहाल तो भाजपा का कब्जा है, लेकिन तीनों ही सीटों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गुंडरदेही विधायक वीरेन्द्र साहू के प्रति पूरे क्षेत्र में जमकर नाराजगी है। इस क्षेत्र के लोग बालोद जिले की बजाए दुर्ग जिले में विलय के पक्ष में थे, किन्तु पहले से ही निष्क्रिय विधायक के रूप में पहचान बनाने वाले श्री साहू ने इतने गम्भीर मसले को महत्व नहीं दिया। पूर्व सांसद व छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के प्रणेता स्व. ताराचंद साहू का इस विधानसभा क्षेत्र में खासा प्रभाव है। उनका अंतिम संस्कार भी यहीं किया गया। मंच सूत्रों की मानें तो यह सीट जीतना उनके लिए बेहद आसान है। पहले से ही विधायक के प्रति लोगों की नाराजगी और ताराचंद साहू के निधन के बाद उपजी सहानुभूति मंच के लिए अच्छा संकेत दे रही है। वहीं बालोद में भाजपा ने पानी की तरह पैसा बहाकर कुमारी देवी को उपचुनाव में जीत तो दिलवा दी, लेकिन अगले चुनाव में उनकी राह भी आसान नहीं है। वैसे तो पार्टी के लोग प्रारम्भ से ही यह कहते आ रहे हैं कि सिर्फ सहानुभूति वोट के लिए ही कुमारी देवी को टिकट दी गई थी। फिलहाल की स्थिति में बालोद विस में भाजपा की जीत की संभावना सौ में से महज 10 फीसदी है। वहीं बालोद जिले की एक अन्य सीट डौंडीलोहारा में भी स्थानीय लोगों में विधायक के प्रति नाराजगी है। पहले लाल महेन्द्र सिंह टेकाम और अब उनकी पत्नी नीलिमा टेकाम को आजमा चुके मतदाता नए विकल्प की तलाश में है। कांग्रेस सूत्रों की मानें तो यहां से भेडिय़ा परिवार की टिकट पक्की है। यदि ऐसा होता है तो भाजपा के हाथ से डौंडीलोहारा सीट भी फिसलती दिखती है। पार्टी इस सीट पर नया चेहरा भी आजमा सकती है। वर्तमान दुर्ग जिले में कुल 6 सीटें हैं। यह सीटें कांग्रेस और भाजपा में 3-3 बँटी हुई है। अहिवारा से जहां भाजपा के डोमनलाल कोर्सेवाड़ा पहली बार विधानसभा पहुंचे तो पाटन से विजय बघेल और दुर्ग शहर से हेमचंद यादव विजयी रही। वैशाली नगर से भजनसिंह निरंकारी, भिलाई नगर से बदरूद्दीन कुरैशी और दुर्ग ग्रामीण से प्रतिमा चंद्राकर विधायक निर्वाचित हुए। भाजपा के लिए अहिवारा में खतरे की घंटी पहले ही बज चुकी थी। सरकार ने सतनामी समाज के आरक्षण को 2 फीसदी कम क्या किया, श्री कोर्सेवाड़ा के लिए खतरा पैदा हो गया। विधानसभा में भी उन्होंने समाज का प्रतिनिधित्व नहीं किया। इसके अलावा जेके लक्ष्मी सीमेंट फैक्ट्री मामले में श्री कोर्सेवाड़ा की रहस्यमय चुप्पी भी स्थानीय लोगों के नाराजगी की प्रमुख वजह है। इस पूरे माहौल का फायदा कांग्रेस को जाता दिख रहा है। हालांकि कांग्रेस प्रत्याशी को लेकर कुछ कहना जल्दबाजी हो सकती है, लेकिन यदि कांग्रेस ठीक-ठाक प्रत्याशी दे पाई तो यह सीट भाजपा से छीनी जा सकती है। यदि दुर्ग विधानसभा पर चर्चा करें तो केबिनेट मंत्री रहते चुनाव लडऩे वाले हेमचंद यादव यहां से महज 700 वोटों से जीते थे। उनकी स्थिति अभी भी पिछली बार की ही तरह है। वे खुद चुनाव जीतने के बाद से निष्क्रिय रहे हैं। कार्यकर्ताओं में नाराजगी है और पार्टी का एक बड़ा तबका घर में बैठा हुआ है। ऐसे लोगों का साफ कहना है कि मंत्री ने इतने सालों में उनके लिए कुछ नहीं किया। यह नाराजगी श्री यादव को भारी पड़ सकती है। पाटन का रूख करें तो धाकड़ कांग्रेस नेता भूपेश बघेल को हराकर केसरिया ध्वज लहराने वाले विजय बघेल को अगले चुनाव में बदले जाने की चर्चा है। विजय बघेल खुद यह कहते फिर रहे हैं कि पार्टी उनकी टिकट काटने जा रही है। वैसे भी चुनाव हारने के बाद भी भूपेश बघेल लगातार क्षेत्र में सक्रिय रहे और लोगों के दुख-दर्द से रूबरू होते रहे। इसके विपरीत विधायक बनने के बाद विजय बघेल के नजरिए में बदलाव आया। यही बदलाव उनके लिए दिक्कतें पेश कर रहा है। पार्टी सूत्रों के मुताबिक, वरिष्ठ नेता भी विजय बघेल की कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं। दुर्ग जिले की बाकी की तीन सीटों वैशाली नगर, भिलाई नगर व दुर्ग ग्रामीण में कांग्रेस के विधायक हैं। इन क्षेत्रों में यदि भाजपा ठोक-बजाकर प्रत्याशी चुने तो उसका खाता खुल सकता है। इन तीनों में से सिर्फ दुर्ग ग्रामीण ही कांग्रेस की कमजोर कड़ी मानी जा रही है। ००० मान्यताओं के झमेले में निजी आईटीआई 120 आईटीआई की मान्यता पर मंडराए खतरे के बादल रायपुर। छत्तीसगढ़ के 120 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) मान्यताओं के झमेले में फंसने जा रहे हैं। क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (क्यूसीआई) के नए मापदंडो के मुताबिक अब ऐसे आईटीआई संचालकों, जिन्होंने एनसीवीटी से मान्यता ले रखी है, उन्हें क्यूसीआई से दुबारा नए सिरे से मान्यता लेनी होगी। राज्य में आईटीआई की हालत पहले ही खस्ता है, ऐसे में इन आईटीआई को क्यूसीआई से मान्यता मिल पाएगी, इसमें संदेह है। जाहिर है कि मान्यता नहीं मिलने पर हजारों युवाओं का भविष्य अधर में लटक जाएगा। इस संदर्भ में संचालनालय, रोजगार एवं प्रशिक्षण संस्थान के जिम्मेदार लोग फिलहाल खामोश हैं। राज्य के 120 आईटीआई पर खतरे के बादल मंडराते दिख रहे हैं। इन आईटीआई संचालकों को जनवरी 2013 से क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया से दुबारा मान्यता लेनी होगी। ऐसा नहीं करने पर आईटीआई पर तालाबंदी की नौबत आ जाएगी। अब तक आईटीआई संचालक एनसीवीटी से मान्यता लेते रहे हैं और हर पांच साल में इस मान्यता का रिनीवल कराते रहे हैं। लेकिन नए नियम उन्हें पचड़े में डालने जा रहे हैं। पहले ही खस्ताहाल इन आईटीआई को क्यूसीआई से मान्यता मिलना इसलिए भी संदिग्ध है क्योंकि न तो इन संस्थानों के पास खुद का भवन है, न मशीने और उपकरण और न ही व्यवस्थित स्टॉफ। कहने को भले ही यह ये औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान हैं, किन्तु उनके पास तकनीकी दक्ष कर्मचारियों का भी सर्वथा अभाव है। जबकि क्यूसीआई से मान्यता के लिए इन तमाम मापदंडों को पूरा करना नितांत जरूरी है। उल्लेखनीय है कि मापदंडों का पालन नहीं करने पर पिछले साल ही एनसीवीटी ने 12 आईटीआई को मान्यता देने से साफ तौर पर इनकार कर दिया था। नुकसान छात्रों का नए नियमों के लागू होने पर प्रत्येक छात्र को स्टेट काउंसिल ऑफ वोकेशनल ट्रेनिंग (एससीवीटी) लेनी होगी। यदि छात्र केन्द्रीय सेवाओं में जाने का इच्छुक है तो यहां भी उसे मुंह की खानी पड़ेगी क्योंकि केन्द्रीय नौकरियों में एनसीवीटी के सर्टिफिकेट को मान्यता नहीं है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में भी छात्र इसी वजह से भाग नहीं ले पाएंगे। आईटीआई में प्रशिक्षण अधिकारी वर्ग-3 के पदों के लिए भी एनसीवीटी प्रमाणपत्रधारी अयोग्य हो जाएंगे। भर्राशाही रोकने की कवायद एनसीवीटी की मान्यता लेने के बाद होने वाली भर्राशाही को रोकने के लिए डीजीटी, नई दिल्ली ने क्यूसीआई का मापदंड तय किया है। नए मापदंडों की एक वजह यह भी है कि एनसीवीटी के प्रमाण-पत्रों पर गुणवत्ता की मुहर लग पाए। लेकिन ये मापदंड औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं। नए कायदों के चलते सभी आईटीआई को मापदंडों पर खरा उतरना होगा। ऐसा नहीं होने की स्थिति में ट्रेडों की एनसीवीटी की मान्यता खत्म होना तय है। नियम-कायदे ताक पर औद्योगिक प्रतिष्ठानों को राज्य के 42 निजी आईटीआई की कमान इसलिए सौंपी गई थी कि ताकि छात्रों को गुणवत्ता आधारित प्रशिक्षण मिले। छात्र शैक्षणिक व तकनीकी मापदंडों को पूरा कर पाएं और आईटीआई से आधुनिक बाजार के हिसाब से कुशल कारीगर तैयार हो पाएं। लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि इन सभी आईटीआई में बिना कार्यवाही विवरण व प्रगति प्रतिवेदन के ट्रीपल-पी योजना चल रही है। योजना के संचालन के लिए केन्द्र सरकार प्रत्येक आईटीआई को ढाई-ढाई करोड़ का बजट मुहैय्या करा रही है, किन्तु अध्यक्ष व आईएमसी सोसायटी द्वारा नियम-कायदों को ताक पर रखकर इन 42 आईटीआई का संचालन हो रहा है। मजे की बात तो यह है कि आईएमसी सोसायटी के इन कारनामों की जानकारियां संचालनालय, रोजगार एवं प्रशिक्षण के जिम्मेदार अधिकारियों को भी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी और विश्वनीय सूत्रों पर यकीन करें तो केन्द्र सरकार से मिलने वाली राशि का जमकर दुरूपयोग हो रहा है।

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